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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


राम- पहाड़ियों की ऊदी रंग की ओस से लदी हुई चादर कितनी सुन्दर मालूम होती है। प्रकृति सोने का सामान कर रही है।

सीता- नीचे की घाटियों में काली चादर से मुंह ढांक लिया।

राम- और पवन को देखो, जैसे कोई नागिन लहराती हुई चली जाती हो।

सीता- केतकी के फूलों से कैसी सुगन्ध आ रही है।

लक्ष्मण खड़े-खड़े एकाएक चौंककर बोले- भैया, वह सामने धूल कैसी उड़ रही है? सारा आसमान धूल से भर गया।

राम- कोई चरवाहा भेड़ों का गल्ला लिए चला जाता होगा।

लक्ष्मण- नहीं भाई साहब, कोई सेना है। घोड़े साफ दिखायी दे रहे हैं। वह लो, रथ भी दिखायी देने लगे।

रामचन्द्र- शायद कोई राजकुमार आखेट के लिए निकला हो।

लक्ष्मण- सबके सब इधर ही चले आते हैं।

यह कहकर लक्ष्मण एक ऊंचे पेड़ पर चढ़ गये, और भरत की सेना को ध्यान से देखने लगे। रामचन्द्र ने पूछा- कुछ साफ दिखायी देता है?

लक्ष्मण- जी हां, सब साफ दिखायी दे रहा है। आप धनुष और बाण लेकर तैयार हो जायं। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि भरत सेना लेकर हमारे ऊपर आक्रमण करने चले आ रहे हैं। इन डालों के बीच से भरत के रथ की झन्डी साफ दिखायी दे रही है। भली प्रकार पहचानता हूं, भरत ही का रथ है। वही सुरंग घोड़े हैं। उन्हें अयोध्या का राज्य पाकर अभी सन्तोष नहीं हुआ। आज सारे झगड़े का अन्त ही कर दूंगा।

रामचन्द्र- नहीं लक्ष्मण, भरत पर सन्देह न करो। भरत इतना स्वार्थी, इतना संकोचहीन नहीं है। मुझे विश्वास है कि वह हमें वापस ले चलने आ रहा है। भरत ने हमारे साथ कभी बुराई नहीं की।

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