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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


सम्पाति बोला- दक्षिण की ओर चले जाओ। वहां तुम्हें एक समुद्र मिलेगा। समुद्र के उस पार लंका है। यहां से कोई सौ कोस होगा।

यह समाचार सुनकर उस दल के लोग बहुत प्रसन्न हुए। जीवन की कुछ आशा हुई। उसी समय चाल तेज कर दी और दो दिनों में रात-दिन चलकर सौ कोस की मंजिल पूरी कर दी। अब समुद्र उनके सामने लहरें मार रहा था। चारों ओर पानी ही पानी। जहां तक निगाह जाती, पानी ही पानी नज़र आता था। इन बेचारों ने इतना चौड़ा नद कहां देखा था। कई आदमी तो मारे भय के कांप उठे। न कोई नाव थी, न कोई डोंगी, समुद्र में जायं तो कैसे जायं। किसी की हिम्मत न पड़ती थी। नल और नील अच्छे इंजीनियर थे, मगर समुद्र में तैरने योग्य नाव बनाने के लिए न कोई सामान था, न समय। इसके अलावा कोई युक्ति न थी कि उनमें से कोई समुद्र में तैरकर लंका में जाय और सीता जी की खबर लाये। अन्त में बूढ़े जामवन्त ने कहा- क्यों भाइयो, कब तक इस तरह समुद्र को सहमी हुई आंखों से देखते रहोगे? तुममें कोई इतनी हिम्मत नहीं रखता कि समुद्र को तैर कर लंका तक जाय?

अंगद ने कहा- मैं तैरकर जा तो सकता हूं, पर शायद लौटकर न आ सकूं।

नल ने कहा- मैं तैरकर जा सकता हूं, पर शायद लौटते वक्त आधी दूर आते-आते बेदम हो जाऊं।

नील बोला- जा तो मैं भी सकता हूं और शायद यहां तक लौट भी आऊं। मगर लंका में सीता जी का पता लगा सकूं, इसका मुझे विश्वास नहीं।

इस तरह सबों ने अपने-अपने साहस और बल का अनुमान लगाया। किन्तु हनुमान जी अभी तक चुप बैठे थे। जामवन्त ने उनसे पूछा- तुम क्यों चुप हो, भगत जी? बोलते क्यों नहीं? कुछ तुमसे भी हो सकेगा?

हनुमान ने कहा- मैं लंका तक तैरकर जा सकता हूं। तुम लोग यहीं बैठे हुए मेरी प्रतीक्षा करते रहना।

जामवन्त ने हंसकर कहा- इतना साहस होने पर भी तुम अब तक चुप बैठे थे।

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