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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


ससुराल में गुजराती की हालत अपने गाँव से भी बदतर थी। इसका शौहर रामरतन करीब के रेलवे स्टेशन पर पानी पांडे था। मिजाज का वड़ा सख्त, निहायत गुस्सावर और हमेशा त्यौरियाँ चढ़ी रहती थीं। बावजूद इसके गुजराती स्टेशन के मुलाजमीन के गेहूँ पीसती थी और अपनी रोटियों के लिए शौहर की मोहताज न थी, लेकिन इससे रामरतन की सख्ती और हुकूमत में कोई कमी न बाका होती थी। बाहर वह एक जिंदादिल, खुशबाश आदमी था। मगर घर में क़दम रखते ही उसके सर पर भूत सवार हो जाता था। शायद इसका बाइस इसकी बदगुमानी थी। वह न चाहता था कि गुजराती किसी के घर जाए या किसी से निकटता पैदा करे और यह गुजराती के लिए ग़ैर-मुमकिन था। इसने अब तक आज़ादाना ज़िंदगी बसर की थी। यह कैद अब इससे न सही जाती थी। इस आज़ादी ने इस घरेलू जीवन की फ़िकरों से बेपर्वा बना रखा था। रामरतन तनख्वाह के अलावा रोजाना कुछ-न-कुछ ऊपर से कमा लिया करता था और तुर्रा यह कि पानी को दूध के दामों बेच कर वह ठंडे पानी की मनपसंद आवाज लगाता हुआ हर एक गाड़ी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक तेजी से निकल जाता था। ग़ालेबन वह ऐसी खुश-आइंद सदा को मुसाफ़रों की तस्कीन के लिए काफ़ी समझता था। चारों तरफ़ से 'पानी-पानी' की आवाज़ें आती थीं, लेकिन रामरतन उस वक्त तक मुखातब न होता था, जब तक किसी मुसाफ़िर की बे-नक़ाब नवाजिश (कृपा) इसे क्रियाशील करती थी। इतनी एतहात पर भी जब मुसर्रत से इसका गला न छूटता था तो उसे कुदरतन गुजराती पर गुस्सा आता था, मगर गुजराती इन आए दिन की कशमकशों को ज़िंदगी की एक मामूली कैफ़ियत ख्याल करती थी। इसकी खुशदिली और मनमौजीपन पर इनका बहुत ही कम असर पड़ता था।

गुजराती की शादी के पाँच साल बाद मैं फिर अपने मौजा पर गई। शहर में प्लेग फैला हुआ था, वरना हम शहरियों को देहात की ज़िंदगी में क्या लुत्फ? सावन का महीना था। गाँवों की कई लड़कियाँ सुसराल से आई हुई थीं। मेरा आना सुनकर सब-की-सब मुझसे मिलने आईं। इनमें गुजराती भी थी। उसका चेहरा खिला हुआ तो न था, पर इसकी हुस्ने मुतऐयिन के परदा में शबाब की हरारत और सुरखी झलक रही थी। सुबह खिजा न थी, चाँदनी रात थी, इसकी गोद में एक चाँद-सा बच्चा था। मैंने इससे गले मिलने के बाद बच्चे को गोद में लिया तो मेरा कलेजा सन्न से हो गया। वह दोनों आँखों का अंधा था। गुजराती से पूछा- ''इसे कोई बीमारी हुई थी या जन्म से ऐसा ही है?''

गुजराती ने आँखों में आँसू भर कर कहा- ''नहीं बहन जी, इसे सीतला जी निकल आई थीं। इसी में दोनों आँखें जाती रहीं। बहुत मान-मनौती की, मगर देवी जी ने आखें ले ही लीं। जान छोड़ दी, यही बहुत किया।''

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