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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


‘बिल्कुल व्यर्थ।’

‘अरे भाई जान, किसी प्राचीन कवि की ही कोई चीज सुना दीजिए। यहाँ कौन जानता है।’

‘जी नहीं, क्षमा कीजिएगा। मैं भाट नहीं हूँ, न कथक हूँ।’

यह कहते हुए प्रवीणजी तुरन्त वहाँ से चल दिये। घर पहुँचे तो उनका चेहरा खिला हुआ था।

सुमित्रा ने प्रसन्न होकर पूछा- इतनी जल्दी कैसे आ गये?

‘मेरी वहाँ कोई जरूरत न थी।’

‘चलो, चेहरा खिला हुआ है खूब सम्मान हुआ होगा।’

‘हाँ सम्मान तो, जैसी आशा न थी वैसा हुआ।’

‘खुश बहुत हो।’

इसी से कि आज मुझे हमेशा के लिए सबक मिल गया। मैं दीपक हूँ और जलने के लिए बना हूँ। आज मैं इस तत्व को भूल गया था। ईश्वर ने मुझे ज्यादा बहकने न दिया। मेरी यह कुटिया ही मेरे लिए स्वर्ग है। मैं आज यह तत्व पा गया कि साहित्य-सेवा पूरी तपस्या है।

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7. लैला

यह कोई न जानता था कि लैला कौन है, कहाँ से आयी है और क्या करती है। एक दिन लोगों ने एक अनुपम सुंदरी को तेहरान के चौक में अपने डफ पर हाफ़िज की यह ग़जल झूम-झूम कर गाते सुना-

रसीद मुज़रा कि ऐयामे ग़म न ख्वाहद माँद,
चुनाँ न माँद, चुनीं नीज़ हम न ख्वाहद माँद।


और सारा तेहरान उस पर फिदा हो गया। यही लैला थी।

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