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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


गुजराती ने ताक की तरफ़ इशारा करके कहा- ''हाँ, आज हो जाएगा। रामायण उतार लो।''

एक औरत ने रामायण उतार ली और एक-एक चौपाई पढ़ने लगी। गुजराती उसके मतलब समझाती जाती थी। मुझे अब तक न मालूम था कि गुजराती ने इतनी योग्यता पा ली है। गौर से सुनने लगी।

डेढ़-दो घंटे तक रामायण की कथा होती रही। अभी ये औरतें बैठी ही थीं कि गाँव की कई लड़कियाँ आ गई। गुजराती इन्हें पढ़ाने में मसरूफ़ हो गई और दोपहर तक यह क्रम जारी रहा। इसी दौरान में कई औरत अपने बच्चों को दिखाने भी आईं। गुजराती इन्हें देख-देखकर दवाएँ देती जाती थी। साधु-संतों के सत्संग से इसे इस फ़न में महारत हो गया था।

जब एकांत हो गया तो गुजराती ने मुझसे कहा- ''तुम्हारे साथ चलूँ तो यह सब काम कौन करेगा? पड़े-पड़े आराम से खाने में यह सुख कहीं मिल सकता?

मैंने इसकी तरफ़ विवशता की निगाहों से देखकर कहा- ''मैं न जानती थी कि इस हालत में भी तुमने इतने पाँव फैला रखे हैं।''

गुजराती बोली- ''क्या करूँ बहन जी, मुझसे अपाहजों की तरह नहीं रहा जाता। मुझे इन कामों में जितना सुख मिलता है, वह सोने और खाने में कभी नहीं मिल सकता। मेरा तो जी उकता जाए। न जाने कैसे लोग इस तरह रहते हैं।''

मेरी आँखें खुल गईं। बेशक यही ज़िंदा-दिली रूहे-हयात है जो मुसीबतों की परवा नहीं करती। जो काल-चक्र से बेअसर, हर एक हालात में रवाँ हो, कितनी ही खराब क्यों न हो, सेवा करने के रास्ते निकाल लेती है। नहीं, बल्कि हर एक पहलू से बड़ी मुसीबत में इसके जौहर खिलते जाते हैं। ज़माना इसे जितना ही रौंदने की कोशिश करता है, उतनी ही उसकी हिम्मत मजबूत होती जाती है, उतनी ही उसकी निगाहें तेज और इरादे ज्यादा बुलंद होते जाते हैं, जैसे कोई उत्तम घोड़ा एड़ की चोट खाकर और भी तरारे भरने लगता है।

गुजराती अभी जिंदा है और मेरा मौजा इसी तरह उसकी जात से लाभ, उपकार पा रहा है।

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