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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


जेठ का महीना था। आसपास की ताल-तलैया सब सूख गयी थीं। बेचू को पहर रात रहते दूर के एक ताल पर जाना पड़ता था। यहाँ भी धोबियों की ओसरी बँधी हुई थी। बेचू की ओसरी पाँचवें दिन पड़ती थी। पहर रात रहे लादी लाद कर ले जाता। मगर जेठ की धूप में 9-10 बजे के बाद खड़ा न हो सकता। आधी लादी भी न धुल पाती, बिना धुले कपड़े समेट कर घर चला आता। गाँव के सरल जजमान उसकी विपत्ति कथा सुन कर शांत हो जाते थे; न कोई गालियाँ देता, न मारने दौड़ता। जेठ की धूप में उन्हें भी पुर चलाना और खेत गोड़ना पड़ता था। अपने पैरों में बिवाय फटी थी, उसकी पीर जानते थे। परन्तु कारिंदा महाशय को प्रसन्न करना इतना सहज न था। उनके आदमी नित्य बेचू के सिर पर सवार रहते थे। वह बड़ी गम्भीरता से कहते- 'तू एक-एक अठवारे तक कपड़े नहीं लाता, क्या यह भी कोई जाड़े के दिन हैं, आजकल पसीने से दूसरे दिन कपड़े मैले हो जाते हैं; कपड़ों से बू आने लगती है और तुझे कुछ भी परवाह नहीं रहती।'

बेचू हाथ-पैर जोड़कर किसी तरह उन्हें मनाता रहता था, यहाँ तक कि एक बार उसे बातें करते 9 दिन हो गये और कपड़े तैयार न हो सके। धुल तो गये थे, पर इस्तरी न हुई थी। अंत में विवश होकर बेचू दसवें दिन कपड़े लेकर चौपाल पहुँचा। मारे डर के पैर आगे न उठते थे। कारिंदा साहब उसे देखते ही क्रोध से लाल हो गये। बोले- क्यों बे पाजी, तुझे गाँव में रहना है कि नहीं?

बेचू ने कपड़ों की गठरी तख्त पर रख दी और बोला- क्या करूँ सरकार, कहीं भी पानी नहीं है और न मेरे इस्तरी ही है।

कारिंदा- पानी तेरे पास नहीं है और सारी दुनिया में है। अब तेरा इलाज इसके सिवाय और कुछ नहीं है कि गाँव से निकाल दूँ। शैतान, दाई से पेट छिपाता है, पानी नहीं, इस्तरी नहीं।

बेचू- मालिक, गाँव आपका है, चाहे रहने दें, चाहे निकाल दें, लेकिन यह कलंक न लगायें, इतनी उमिर आप ही लोगों की खिदमत करते हो गयी, पर चाहे कितनी ही भूल-चूक हुई हो, कभी नीयत बद नहीं हुई। अगर गाँव में कोई कह दे कि मैंने कभी गाहकों के साथ ऐसी चाल चली है तो उसकी टाँग की राह निकल जाऊँ। यह दस्तूर शहर के धोबियों का है।

निरंकुशता का तर्क से विरोध है। कारिंदा साहब ने कुछ और अपशब्द कहे। बेचू ने भी न्याय और दया की दुहाई दी। फल यह हुआ कि उसे आठ दिन हल्दी और गुड़ पीना पड़ा। नवें दिन उसने सब गाहकों के कपड़े जैसे-तैसे धो दिये, अपना बोरिया-बँधना सँभाला और बिना किसी से कुछ कहे-सुने रात को पटने की राह ली। अपने पुराने गाहकों से विदा होने के लिए जितने धैर्य की जरूरत थी, उससे वह वंचित था।

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