कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
दिल्ली का बादशाह सिर झुकाये नादिरशाह के पास बैठा हुआ था। हरमसरा में विलास करनेवाला बादशाह नादिरशाह की अविनयपूर्ण बातें सुन रहा था; पर मजाल न थी कि जबान खोल सके। उसे अपनी ही जान के लाले पड़े हुए थे, पीड़ित प्रजा की रक्षा कौन करे? वह सोचता था, मेरे मुँह से कुछ निकले और वह मुझी को डाँट बैठते थे!
अंत में जब सेना की पैशाचिक क्रूरता पराकाष्ठा को पहुँच गयी, तो मुहम्मदशाह के वजीर से न रहा गया। वह कविता का मर्मज्ञ था, खुद भी कवि था। जान परखेल कर नादिरशाह के सामने पहुँचा और यह शेर पढ़ा-
मगर कि ज़िंदा कुनी खल्करा व बाज़ कुशी।
अर्थात् तेरी निगाहों की तलवार से कोई नहीं बचा। अब यही उपाय है कि मुर्दों को फिर जिलाकर कत्ल कर।
शेर ने दिल पर चोट किया। पत्थर में भी सुराख होते हैं; पहाड़ों में भी हरियाली होती है; पाषाण हृदयों में भी रस होता है। इस शेर ने पत्थर को पिघला दिया। नादिरशाह ने सेनापति को बुलाकर कत्लेआम बंद करने का हुक्म दिया। एकदम तलवारें म्यान में चली गयीं। कातिलों के उठे हुए हाथ उठे ही रह गये। जो सिपाही जहाँ था; वहीं बुत बन गया।
शाम हो गयी थी। नादिरशाह शाही बाग में सैर कर रहा था। बार-बार वही शेर पढ़ता और झूमता-
मगर कि ज़िंदा कुनी खल्करा व बाज़ कुशी।
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