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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


'तो भाई, अभी से कुशल है, लिखा-पढ़ी कर लो! यह संशय रहे ही क्यों?'

विक्रम ने हँसकर कहा, 'तुम बड़े शक्की हो यार! मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। भला, ऐसा कहीं हो सकता है? पाँच लाख क्या, पाँच करोड़ भी हों,तब भी ईश्वर चाहेगा, तो नीयत में खलल न आने दूंगा।' किन्तु मुझे उसके इस आश्वासन पर बिलकुल विश्वास न आया। मन में एक संशय बैठ गया।

मैंने कहा, 'यह तो मैं जानता हूँ, तुम्हारी नीयत कभी विचलित नहीं हो सकती, लेकिन लिखा-पढ़ी कर लेने में क्या हरज है?'

'फजूल है।'

'फजूल ही सही।'

'तो पक्के कागज पर लिखना पड़ेगा। दस लाख की कोर्ट-फीस ही साढ़े सात हजार हो जायगी। किस भ्रम में हैं आप?'

मैंने सोचा, 'बला से सादी लिखा-पढ़ी के बल पर कोई कानूनी कार्रवाई न कर सकूँगा। पर इन्हें लज्जित करने का, इन्हें जलील करने का, इन्हें सबके सामने बेईमान सिद्ध करने का अवसर तो मेरे हाथ आयेगा और दुनिया में बदनामी का भय न हो, तो आदमी न जाने क्या करे। अपमान का भय कानून के भय से किसी तरह कम क्रियाशील नहीं होता। बोला, 'मुझे सादे कागज पर ही विश्वास आ जायगा।'

विक्रम ने लापरवाही से कहा, 'ज़िस कागज का कोई कानूनी महत्त्व नहीं, उसे लिखकर क्या समय नष्ट करें?'

मुझे निश्चय हो गया कि विक्रम की नीयत में अभी से फितूर आ गया। नहीं तो सादा कागज लिखने में क्या बाधा हो सकती है? बिगड़कर कहा, 'तुम्हारी नीयत तो अभी से खराब हो गयी। उसने निर्लज्जता से कहा, तो क्या तुम साबित करना चाहते हो कि ऐसी दशा में तुम्हारी नीयत न बदलती?'

'मेरी नीयत इतनी कमजोर नहीं है?'

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