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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


वह खेमे से बाहर निकल आयी। कोई बाधक न हुआ। मगर उसका दिल धड़क रहा था कि कहीं कोई आकर फिर न पकड़ ले। जब वह पेडों के झुरमुट से बाहर पहुंची तो उसकी जान में जान आयी। बड़ा सुहाना मौसम था, ठंड़ी-ठंड़ी मस्त हवा पेड़ों के पत्तों पर धीमे-धीमे चल रही थी और पूरब के क्षितिज में सूर्य भगवान की अगवानी के लिए लाल मखमल का फर्श बिछाया जा रहा था। वृन्दा ने आगे कदम बढाना चाहा। मगर उसके पांव न उठे। प्रेमसिंह की यह बात कि सिपाहियों के साथ तो जाती हो तो फिर इस घर में पैर न रखना, उसे याद आ गयी। उसने एक लम्बी सांस ली और जमीन पर बैठ गई। दुनिया में अब उसके लिए कोई ठिकाना न था।

उस अनाथ चिड़िया की हालत कैसी दर्दनाक है जो दिल में उड़ने की चाह लिए हुए बहेलिये की कैद से निकल आती है मगर आजाद होने पर उसे मालूम होता है कि उस निष्ठुर बहेलिये ने उसके परों को काट दिया है। वह पेड़ों की सायेदार डालियों की तरफ बार-बार हसरत की निगाहों से देखती है मगर उड़ नहीं सकती और एक बेबसी के आलम में सोचने लगती है कि काश, बहेलिया मुझे फिर पिंजरे में कैद कर लेता। वृन्दा की हालत इस वक्त ऐसी ही दर्दनाक थी।

वृन्दा कुछ देर तक इस ख्याल में डूबी रही, फिर वह उठी और धीरे-धीरे प्रेमसिंह के दरवाजे पर आयी। दरवाजा खुला हुआ था मगर वह अन्दर कदम न रख सकी। उसने दरो-दीवार को हसरत भरी निगाहों से देखा और फिर जंगल की तरफ चली गई।

शहर लाहौर के एक शानदार हिस्से में ठीक सड़क के किनारे एक अच्छा-सा साफ-सुथरा तिमंजिला मकान है। हरी-भरी फूलों वाली माधवीलता ने उसकी दीवारों और मेहराबों को खूब सजा दिया है। इसी मकान में एक अमीराना ठाट-बाट से सजे हुए कमरों में फैली एक मखमली कालीन पर बैठी हुई वृन्दा अपनी सुन्दर रंगों और मीठी आवाज वाली मैना को पढ़ा रही है। कमरे की दीवारों पर हलके हरे रंग की कलई है-खुशनुमा दीवारगीरियाँ, खूबसूरत तस्वीरें उचित स्थानों पर शोभा दे रही हैं। सन्दल और खस की प्राणवर्धक सुगन्ध कमरे के अन्दर फैली हुई है। एक बूढ़ी बैठी हुई पंखा झल रही है। मगर इस ऐश्वर्य और सब सामग्रियों के होते हुए वृन्दा का चेहरा उदास है। उसका चेहरा अब और भी पीला नजर आता है। मौलश्री का फूल मुरझा गया है।

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