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प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


उस समय बालाजी ने गम्भीर साँस ली। उन्हें प्रतीत हुआ कि मैं अपार प्रेम के समुद्र में बहा जा रहा हूं। धैर्य का लंगर उठ गया और उस मनुष्य की भांति जो अकस्मात् जल में फिसल पडा हो, उन्होंने माधवी की बांह पकड़ ली। परन्तु हां :जिस तिनके का उन्होंने सहारा लिया वह स्वयं प्रेम की धार में तीब्र गति से बहा जा रहा था। उनका हाथ पकडते ही माधवी के रोम-रोम में बिजली दौड गयी। शरीर में स्वेद-बिन्दु झलकने लगे और जिस प्रकार वायु के झोंके से पुष्पदल पर पड़े हुए ओस के जलकण पृथ्वी पर गिर जाते हैं, उसी प्रकार माधवी के नेत्रों से अश्रु के बिन्दु बालाजी के हाथ पर टपक पड़े। प्रेम के मोती थे, जो उन मतवाली आंखों ने बालाजी को भेंट किये। आज से ये आँखें फिर न रोयेंगी।

आकाश पर तारे छिटके हुए थे और उनकी आड़ में बैठी हुई स्त्रियां यह दृश्य देख रही थी आज प्रात:काल बालाजी के स्वागत में यह गीत गाया था -

बालाजी तेरा आना मुबारक होवे।


और इस समय स्त्रियां अपने मन-भावे स्वरों से गा रहीं हैं :

बालाजी तेरा जाना मुबारक होवे।


आना भी मुबारक था और जाना भी मुबारक है। आने के समय भी लोगों की आंखों से आंसू निकले थें और जाने के समय भी निकल रहे हैं। कल वे नवागत के अतिथि स्वागत के लिए आये थे। आज उसकी विदाई कर रहें हैं उनके रंग-रूप सब पूर्ववत हैं परन्तु उनमें कितना अन्तर है।

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4. विदुषी वृजरानी

जब से मुंशी संजीवनलाल तीर्थ यात्रा को निकले और प्रतापचन्द्र प्रयाग चला गया उस समय से सुवामा के जीवन में बड़ा अन्तर हो गया था। वह ठेके के कार्य को उन्नत करने लगी। मुंशी संजीवनलाल के समय में भी व्यापार में इतनी उन्नति नहीं हुई थी। सुवामा रात-रात भर बैठी ईंट-पत्थरों से माथा लड़ाया करती और गारे-चूने की चिंता में व्याकुल रहती। पाई-पाई का हिसाब समझती और कभी-कभी स्वयं कुलियों के कार्य की देखभाल करती। इन कार्यों में उसकी ऐसी प्रवृति हुई कि दान और व्रत से भी वह पहले का-सा प्रेम न रहा। प्रतिदिन आय वृद्वि होने पर भी सुवामा ने व्यय किसी प्रकार का न बढ़ाया। कौड़ी-कौड़ी दाँतों से पकड़ती और यह सब इसलिए कि प्रतापचन्द्र धनवान हो जाए और अपने जीवन-पर्यन्त सानंद रहे।

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