कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 38 प्रेमचन्द की कहानियाँ 38प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग
मुख से प्रथम पद्य का निकलना था कि सेवती के रोएँ खड़े हो गये और जब तक सारा पद्य समाप्त न हुआ, वह तन्मय होकर सुनती रही। प्राणनाथ की संगति ने उसे काव्य का रसिक बना दिया था। बार-बार उसके नेत्र भर आते। जब विरजन चुप हो गयी तो एक समाँ बँधा हुआ था मानों को कोई मनोहर राग अभी थम गया है। सेवती ने विरजन को कण्ठ से लिपटा लिया, फिर उसे छोड़कर दौड़ी हुई प्राणनाथ के पास गयी, जैसे कोई नया बच्चा नया खिलौना पाकर हर्ष से दौड़ता हुआ अपने साथियों को दिखाने जाता है। प्राणनाथ अपने अफसर को प्रार्थना-पत्र लिख रहे थे कि मेरी माता अति पीड़िता हो गयी है, अतएव सेवा में प्रस्तुत होने में विलम्ब हुआ। आशा करता हूँ कि एक सप्ताह का आकस्मिक अवकाश प्रदान किया जायगा।
सेवती को देखकर चट आपना प्रार्थना-पत्र छिपा लिया और मुस्कराये। मनुष्य कैसा धूर्त है! वह अपने आपको भी धोखा देने से नहीं चूकता।
सेवती- तनिक भीतर चलो, तुम्हें विरजन की कविता सुनवाऊं, फड़क उठोगे।
प्राण0- अच्छा, अब उन्हें कविता की चाट हुई है? उनकी भाभी तो गाया करती थी– तुम तो श्याम बड़े बेखबर हो।
सेवती- तनिक चलकर सुनो, तो पीछे हँसना। मुझे तो उसकी कविता पर आश्चर्य हो रहा है।
प्राण0- चलो, एक पत्र लिखकर अभी आता हूं।
सेवती- अब यही मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं आपके पत्र नोच डालूंगी।
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