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प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


'हाँ, यह रकम मेरी सामर्थ्य से बाहर है। मैं तो आपसे दया ही की भिक्षा माँग सकता हूँ। आज दस-बारह साल से हम कृष्णा को अपना दामाद समझते आ रहे हैं। आपकी बातों से भी कई बार इसकी तसदीक हो चुकी है। कृष्णा और तारा में जो प्रेम है, वह आपसे छिपा नहीं है। ईश्वर के लिए थोड़े-से रुपयों के वास्ते कई जनों का खून न कीजिए।'

चचा साहब ने धृष्टता से कहा, 'विमल बाबू, मुझे खेद है कि मैं इस विषय में और नहीं दब सकता।'

विमल बाबू जरा तेज होकर बोले, 'आप मेरा गला घोंट रहे हैं !'

चचा- 'आपको मेरा एहसान मानना चाहिए कि कितनी रिआयत कर रहा हूँ।'

विमल- 'क्यों न हो, आप मेरा गला घोंटें और मैं आपका एहसान मानूँ? मैं इतना उदार नहीं हूँ। अगर मुझे मालूम होता कि आप इतने लोभी हैं, तो आपसे दूर ही रहता। मैं आपको सज्जन समझता था। अब मालूम हुआ कि आप भी कौड़ियों के गुलाम हैं। जिसकी निगाह में मुरौवत नहीं, जिसकी बातों का कोई विश्वास नहीं, उसे मैं शरीफ नहीं कह सकता। आपको अख्तियार है, कृष्णा बाबू की शादी जहाँ चाहें करें; लेकिन आपको हाथ न मलना पड़े, तो कहिएगा। तारा का विवाह तो कहीं-न-कहीं हो ही जायगा और ईश्वर ने चाहा तो किसी अच्छे ही घर में होगा। संसार में सज्जनों का अभाव नहीं है; मगर आपके हाथ अपयश के सिवा और कुछ न लगेगा।'

चचा साहब ने त्यौरियाँ चढ़ाकर कहा, 'अगर आप मेरे घर में न होते, तो इस अपमान का कुछ जवाब देता !'

विमल बाबू ने छड़ी उठा ली और कमरे से बाहर जाते हुए कहा, 'आप मुझे क्या जवाब देंगे? आप जवाब देने के योग्य ही नहीं हैं।'

उसी दिन शाम को जब मैं बैरक से आया और जलपान करके विमल बाबू के घर जाने लगा, तो चची ने कहा, 'क़हाँ जाते हो? विमल बाबू से और तुम्हारे चचाजी से आज एक झड़प हो गयी।'

मैंने ठिठककर ताज्जुब के साथ कहा, 'झड़प हो गयी ! किस बात पर?'

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