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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


क्रोध का पारा बढ़ता ही गया। पिता के स्नेह में अस्थिरता नहीं आई, पिता के अधिकार में धक्का लगा था। सत्ता का विरोध किसी से भी सहा नहीं जाता। लोगों ने बीच में पड़कर मनाना चाहा। बड़ी-बड़ी मिन्नतें भी कीं, पर जानकीनाथ ने किसी की एक न सुनी। वे यही कहते, अभी तक दयानाथ ने पिता की गोद का सुख उठाया है, अच्छा है, अब वह जरा इस ज़िंदगी का मज़ा भी उठा ले। ज्यों-ज्यों दिन बीतते गए त्यों-त्यों बूढ़े के क्रोध में भी कमी होती गई। अंत में गरम लोहे की गरमी दूर हुई और उसके दूर होने के पश्चात् उसमें ठंडक आई। जानकीनाथ के हृदय में पश्चात्ताप का भाव उदय हुआ। वे अपने उस क्रोध पर बहुत पछताते। उस घड़ी को कोसते जब उनके मुँह से वे शब्द निकले थे। वे सोचते, मैंने बहुत बुरा किया, क्या मैं नरमी से काम नहीं ले सकता था? जिस बच्चे पर मैँ सब-कुछ न्यौछावर करने को तैयार था, तब क्या उस प्यारे के लिए मैं अपनी जबान काबू में नहीं रख सकता था। दिन-प्रतिदिन पश्चात्ताप की यह ज्वाला जोर पकड़ती गई। वे अपना खाना-पीना भूल गए। नींद कोसों दूर थी। घर काटने को दौड़ता था। अब पुत्र की एक-एक चीज़ को घंटों देखा करते। उसके चित्र को आँखों के सामने से अलग नहीं करते और घंटों चुपचाप आँसू बहाते। इस दुःख और चिंता ने जानकीनाथ को बिलकुल घुला दिया। वे सोचते, मैं कैसा पिशाच. हूँ क्या यह मेरा घर है? कितने दिनों के लिए? मुझे घर लेकर क्या करना है? धन लेकर क्या करना है? सम्मान, ऐश्वर्य और अधिकारियों की प्रसन्नता मेरे किस काम आएगी? मैं माया-जाल में किसके लिए पड़ा था?

जब उसी को इससे कोई लाभ नहीं पहुँच सकता तो मेरी तृष्णा व्यर्थ है। श्यामा को देखकर उन्हें कुछ धैर्य होता। वे सोचते, मेरे ही कारण दयानाथ पत्नी-वियोग का दुःख उठा रहा है। मेरा ही मन रखने के लिए वह श्यामा को यहीं छोड़ गया है, परंतु कभी-कभी पति और पत्नी के इस वियोग पर उन्हें दुःख भी बहुत होता, तब वे विचलित हो जाते। सोचते, उस समय यदि नम्रता सुशील लड़के को हाथ से न निकल जाने देती, तो क्या इस समय रूठा बच्चा मनाया भी नहीं जा सकता। विनय और स्नेह की धारा जोर मारती, परंतु आगे बढ़कर वे मान की चट्टान से टकराकर पीछे हट जातीं। जानकीनाथ सोचते- ''पिता होकर मैं अपना हाथ कैसे झुकाऊँ!''

दिन बीतते गए। जानकीनाथ की अशांति बढ़ती गई। एक दिन कलेक्टर साहब का एक पत्र आया। उन्होंने जानकीनाथ को इस राजभक्ति पर बधाई दी थी। जानकीनाथ ने इस पत्र को फाड़कर फेंक दिया। उसका कुछ उत्तर नहीं दिया। एक दिन पुलिस के सुपरिंटेंडेंट उनसे मिलने आए। जानकीनाथ ने कहला भेजा- ''मैं बीमार हूँ।

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