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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


छह मास भी व्यतीत न होने पाये थे कि अम्बा बीमार पड़ी और एन्फ़्लुएंजा ने देखते-देखते उसे हमारे हाथों से छीन लिया। पुनः वह उपवन मरुतुल्य हो गया, पुनः वह बसा हुआ घर उजड़ गया। अम्बा ने अपने को मुन्नू पर अर्पण कर दिया था हाँ, उसने पुत्र-स्नेह का आदर्श रूप दिखा दिया। शीतकाल था और वह घड़ी रात्रि शेष रहते ही मुन्नू के लिए प्रातःकाल का भोजन बनाने उठती थी। उसके इस स्नेह-बाहुल्य ने मुन्नू पर स्वाभाविक प्रभाव डाल दिया था। वह हठीला और नटखट हो गया था। जब तक अम्बा भोजन कराने न बैठे, मुँह में कौर न डालता, जब तक अम्बा पंखा न झले, वह चारपाई पर पाँव न रखता। उसे छेड़ता, चिढ़ाता और हैरान कर डालता। परंतु अम्बा को इन बातों से आत्मिक सुख प्राप्त होता था। एन्फ़्लुएंजा से कराह रही थी, करवट लेने तक की शक्ति न थी, शरीर तवा हो रहा था, परंतु मुन्नू के प्रातःकाल के भोजन की चिंता लगी रहती थी। हाय! वह निःस्वार्थ मातृ-स्नेह अब स्वप्न हो गया। उस स्वप्न के स्मरण से अब भी हृदय गद्‌गद हो जाता है। अम्बा के साथ मुन्नू का चुलबुलापन तथा बाल क्रीड़ा विदा हो गयी। अब वह शोक और नैराश्य की जीवित मूर्ति है, वह अब भी नहीं रोता। ऐसा पदार्थ खो कर अब उसे कोई खटका, कोई भय नहीं रह गया।

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2. वियोग और मिलाप 

बाबू दयानाथ के हृदय में देश और स्वार्थ का संग्राम उसी समय आरंभ हुआ, जब उन्होंने बी.ए. पास किया। वे 'भारत सेवक-समिति' में जाना चाहते थे, किंतु स्वार्थ ने देश पर विजय पाई। उन्होंने क़ानून पढ़ना शुरू किया। देशानुराग कहता था-निर्बलों की सेवा करो। स्वार्थ कहता था-धन और कीर्ति पैदा करो। देश की फिर हार हुई। धन ने अपनी तरफ़ खींचा। सेवा-भाव, धन की लालसा के नीचे दब गया, जैसे अग्नि राख के नीचे दब जाती है, किंतु दबी हुई आग के सदृश यह भाव भी भीतर-ही-भीतर जागता रहा। यहाँ तक कि पाँच वर्ष बीत गए और उनके नैतिक ज्ञान और ग्राह्यता की ख्याति इतनी हुई कि उनका नाम गवर्नमेंट प्लीडरी के लिए लिया जाने लगा। इसी बीच होमरूल का आंदोलन शुरू हुआ। दयानाथ के हृदय में फिर वही पुराना संग्राम होने लगा। वे परिश्रमशील थे, चतुर थे, कार्यकुशल थे, अच्छे वक्ता थे, अच्छे लेखक थे, यदि अभाव था तो साहस का। यह उनके सहयोगियों और मित्रों के प्रोत्साहन ने दूर कर दिया। वे 'होमरूल-लीग' में सम्मिलित हो गए और पहले ही अधिवेशन में उन पर सर्वसम्मति से मंत्री पद का भार रख दिया गया। दयानाथ काम तो करना चाहते थे, पर गुप्त-रीति से, इसलिए नहीं कि वे भीरु थे, केवल इसलिए कि वे अपने पूज्य पिताजी को अप्रसन्न नहीं करना चाहते थे। सभा समाप्त होने पर वे घर पहुँचे और अभी कपड़े उतार ही रहे थे कि शहर का कोतवाल दो थानेदारों और दस-बारह कांस्टेबलों के साथ उनके दरवाजे पर आ धमका। दयानाथ के पिता लाला जानकीनाथ घबराकर बाहर निकल आए। किसी अमंगल की आशंका हुई। चेहरा फीका पड़ गया। बोले- ''आइए, सरदार साहब, मिजाज तो अच्छे हैं? अरे, भगेलू पान ला।''

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