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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


कुँवर साहब लज्जित हो कर बोले- मैं इसका उत्तर कुछ न दूँगा।

रात को जब दूजी एक ब्राह्मणी के घर में नर्म बिछावन पर लेटी हुई थी तो उसके मन की वह दशा हो रही थी जो आश्विन मास के आकाश की होती है। एक ओर चंद्र प्रकाश, दूसरी ओर घनी घटा और तीसरी ओर झिलमिलाते हुए तारे।

प्रातःकाल का समय था। गंगा नामक स्टीमर बंगाल की खाड़ी में अभिमान से गर्दन उठाये, समुद्र की लहरों को पैरों से कुचलता हुगली के बंदरगाह की ओर चला आता था। डेढ़ सहस्र से अधिक आदमी उसकी गोद में थे। अधिकतर व्यापारी थे। कुछ वैज्ञानिक तत्त्वों के अनुरागी, कुछ भ्रमण करने वाले और कुछ ऐसे हिंदुस्तानी मजदूर जिनको अपनी मातृभूमि आकर्षित कर रही थी। उसी में दोनों भाई शानसिंह और गुमानसिंह एक कोने में बैठे निराशा की दृष्टि से किनारे की ओर देख रहे थे। दोनों हड्डियों के दो ढाँचे थे, उन्हें पहचानना कठिन था।

जहाज घाट पर पहुँचा। यात्रियों के मित्र और परिचित जन किनारे पर स्वागत करने के लिए अधीर हो रहे थे। जहाज पर से उतरते ही प्रेम की बाढ़ आ गयी। मित्रगण परस्पर हाथ मिलाते थे। उनके नेत्र प्रेमाश्रु से परिपूर्ण थे। यह दोनों भाई शनैः-शनैः जहाज से उतरे। मानो किसी ने ढकेल कर उतार दिया। उनके लिए जहाज के तख्ते और मातृभूमि में कोई अंतर न था। वे आये नहीं, बल्कि लाये गये। चिरकाल के कष्ट और शोक ने जीवन का ज्ञान भी शेष न छोड़ा था। साहस लेशमात्र भी न था। इच्छाओं का अंत हो चुका था। वह तट पर खड़े विस्मित दृष्टि से सामने देखते थे। कहाँ जायँ? उनके लिए इस संसार-क्षेत्र में कोई स्थान न दिखायी देता था।

तब दूजी उस भीड़ में से निकल कर आती दिखायी दी। उसने भाइयों को खड़े देखा। तब जिस भाँति जल खाल की ओर गिरता है, उसी प्रकार अधीरता की उमंग में रोती हुई वह उनके चरणों में चिपट गयी। दाहिने हाथ में शानसिंह के चरण थे, बायें हाथ में गुमानसिंह के, और नेत्रों से अश्रुधाराएँ प्रवाहित थीं; मानो दो सूखे वृक्षों की जड़ों में एक मुरझायी बेल चिमटी हुई है या दो संन्यासी माया और मोह की बेड़ी में बँधे खड़े हैं। भाइयों के नेत्रों से भी आँसू बहने लगे। उनके मुखमंडल बादलों में से निकलने वाले तारों की भाँति प्रकाशित हो गये। वह दोनों पृथ्वी पर बैठ गये और तीनों भाई-बहन परस्पर गले मिल कर बिलख-बिलख रोये। वह गहरी खाड़ी जो भाइयों और बहन के बीच में थी, अश्रुधाराओं से परिपूर्ण हो गयी। आज चौदह वर्ष के पश्चात् भाई और बहन में मिलाप हुआ और वह घाव जिसने मांस को मांस से, रक्त को रक्त से, विलग कर दिया था, परिपूर्ण हो गया और वह उस मरहम का काम था जिससे अधिक लाभकारी और कोई मरहम नहीं होता, जो मन के मैल को साफ करता है, जो दुःख को भुलानेवाला और हृदय की दाह को शांत करनेवाला है, जो व्यंग विषैले घावों को भर देता है। यह काल का मरहम है।

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