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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


दयाकृष्ण ने शिकवा किया- ''क्यों झूठ बोलते हो भाई, महीनों गुजर जाते थे, एक खत लिखने की तो आपको फुर्सत न मिलती थी, मेरी याद आती थी।''

सिंगार ने अल्हड़पन से कहा- ''बस, इसी बात पर मेरी सेहत का जाम पियो। अरे यार, इस ज़िंदगी में और क्या रखा है। हँसी-खेल में जो वक्त कट जाए, उसे गनीमत समझो। मैंने तो वह तपस्या त्याग दी। अब तो आए-दिन जलसे होते हे, कभी दोस्तों की दावत है, कभी दरिया का सैर, कभी गाना-बजाना, कभी शराव के दौर। मैंने कहा- लाओ कुछ दिन यह बहार भी देख लूँ। हसरत क्यों दिल में रह जाए। आदमी संसार में कुछ भोगने के लिए आता है, यही ज़िंदगी के मायने हैं। जिसने यह मज़े नहीं चखे, उसका जीना वृथा है। बस दोस्तों की मजलिस हो, बगल में माशूक हो और हाथ में प्याला हो, इसके सिवाय मुझे और कुछ न चाहिए।''

उसने अलमारी खोलकर एक बोतल निकाली और दो गिलासों में शराब ढालकर बोला-  ''यह मेरी सेहत का जाम है। इंकार न करना। मैं तुम्हारी सेहत का जाम पीता हूँ।

दयाकृष्ण को कभी शराब पीने का अवसर न मिला था। वह इतना धर्मात्मा तो न था कि शराब पीना पाप समझता, हाँ उसे दुर्व्यसन समझता था। गंध ही से उसका जी मालिश करने लगा। उसे भय हुआ कि वह शराव की घूँट चाहे मुँह में ले-ले, उसे कंठ के नीचे नहीं उतार सकता। उसने प्याले को शिष्टाचार के तौर पर हाथ में ले लिया, फिर उसे ज्यों-का-त्यों मेज पर रखकर बोला- ''तुम जानते हो मैंने कभी नहीं पी। इस समय मुझे क्षमा करो। दस-पाँच दिन में यह फ़न भी सीख जाऊँगा; मगर यह तो बताओ, अपना कारोवार भी कुछ देखते हो या इसी में पड़े रहते हो?''

सिंगार ने अरुचि से मुँह बनाकर कहा- ''ओह, क्या जिक्र तुमने छेड़ दिया यार, कारोबार के पीछे इस छोटी-सी ज़िंदगी को तबाह नहीं कर सकता। न कोई साथ लाया है, न साथ ले जाएगा। पापा ने मर-मरकर धन संचय किया। क्या हाथ लगा? पचास तक पहुँचते-पहुँचते चल बसे। उनकी आत्मा अब भी संसार के सुखों के लिए तरस रही होगी। धन छोड़कर मरने से फ़ाकेमस्त रहना कहीं अच्छा है। धन की चिंता तो नहीं सताती, यह हाय तो नहीं होती कि मेरे बाद क्या होगा! तुमने गिलास मेज पर रख दिया। जरा पियो, आँखें खुल जाएँगी, दिल हरा हो जाएगा। और लोग सोडा और बरफ़ मिलाते हैं, मैं तो खालिस पीता हूँ। इच्छा हो, तो तुम्हारे लिए बरफ़ मँगाऊँ?'' दयाकृष्ण ने फिर क्षमा माँगी; मगर सिंगार गिलास-पर-गिलास पीता गया। उसको आँखें लाल-लाल निकल आईं, ऊल-ज़लूल वकने लगा, खूव डींगें मारी, फिर बेसुरे राग में एक बाज़ारी गीत गाने लगा। अंत में उसी कुरसी पर पड़ा-पड़ा बेसुध हो गया।

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