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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


माधुरी का मुँह लटक गया। विरक्त-सी होकर बोली- ''इसका खुले शब्दों में यह अर्थ है कि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं। ठीक है, वेश्याओं पर विश्वास करना भी नहीं चाहिए। विद्वानों और महात्माओं का उपदेश कैसे न मानोगे।''

नारी-हदय इस समस्या पर विजय पाने के लिए अपने अस्त्रों से काम लेने लगा। दयाकृष्ण पहले ही हमले में हिम्मत छोड़ बैठा। वोला- ''तुम तो नाराज़ हुई जाती हो माधुरी। मैंने तो केवल इस विचार से कहा था कि तुम मुझे धोखेबाज़ समझने लगोगी। तुम्हें शायद मालूम नहीं है, सिंगारसिंह ने मुझ पर कितने एहसान किए हैं। मैं उन्हीं के टुकड़ों पर पला हूँ। इसमें रत्ती-भर भी मुगालता नहीं है। यहाँ आकर जब मैंने उनके रंग-ढंग देख और उनकी साध्वी स्त्री लीला को बहुत दुखी पाया, तो सोचते-सोचते मुझे यही उपाय सूझा कि किसी तरह सिंगारसिंह को तुम्हारे पंजे से छुडाऊँ। मेरे इस अभिमान का यही रहस्य है; लेकिन उन्हें छुड़ा तो न सका, खुद फँस गया। मेरे इस फ़रेब की जो सजा चाहो दो, सिर झुकाए हुए हूँ।''

माधुरी का अभिमान टूट गया। जलकर बोली- ''तो यह कहिए कि आप लीलादेवी के आशिक हैं। मुझे पहले से मालूम होता, तो तुम्हें इस घर में घुसने न देती। तुम तो एक छिपे रुस्तम निकले।''

वह तोते के पिंजरे के पास जाकर उसे पुचकारने का बहाना करने लगी। मन में जो एक दाह उठ रही थी, उसे कैसे शांत करे।

दयाकृष्ण ने तिरस्कार भरे स्वर में कहा- ''मैं लीला का आशिक नहीं हूँ माधुरी, उस देवी को कलंकित न करो। मैं आज तुमसे शपथ खाकर कहता हूँ कि मैंने कभी उसे इस- निगाह से नहीं देखा। उसके प्रति मेरा वही भाव था, जो अपने किसी आत्मीय को दुःख में देखकर हर एक मनुष्य के मन में आता है।''

''किसी से प्रेम करना तो पाप नहीं है, तुम व्यर्थ में अपनी और लीला की सफ़ाई दे रहे हो।''

''मैं नहीं चाहता कि लीला पर किसी तरह का आरोप किया जाए।''

''अच्छा साहब, लीजिए लीला का नाम न लूँगी। मैंने मान लिया वह सती है, साध्वी है और केवल उनकी आशा से.. ''

दयाकृष्ण ने वात काटी- ''उनकी कोई आज्ञा नहीं थी।''

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