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प्रेमचन्द की कहानियाँ 40

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9801

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग


मिर्जा- वल्लाह, आपको खूब सूझी! इसके सिवा औऱ कोई तदबीर नहीं है।

इधर मीर साहब की बेगम उस सवार से कह रही थी- तुमने खूब धता बतायी।

उसने जवाब दिया- ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूँ। इनकी सारी अकल और हिम्मत तो शतरंज ने चर ली। अब भूलकर भी घर न रहेंगे।

दूसरे दिन से दोनों मित्र मुँह अँधेरे घर से निकल खड़े होते। बगल में एक छोटी-सी दरी दबाये, डिब्बे में गिलोरियाँ भरे, गोमती पार कर एक पुरानी वीरान मस्जिद में चले जाते, जिसे शायद नवाब आसफउद्दौला ने बनवाया था। रास्ते में तम्बाकू, चिलम औऱ मदरिया ले लेते और मस्जिद में पहुँच, दरी बिछा, हुक्का भर शतरंज खेलने बैठ जाते थे। फिर उन्हें दीन-दुनिया की फिक्र न रहती थी। 'किस्त', 'शह' आदि दो-एक शब्दों के सिवा मुँह से और कोई वाक्य नहीं निकलता था। कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता होगा। दो पहर को जब भूख मालूम होती तो दोनों मित्र किसी नानबाई की दूकान पर जाकर खाना खा आते और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्राम क्षेत्र में डट जाते। कभी कभी तो उन्हें भोजन का भी ख्याल न रहता था।

इधर देश की राजनीतिक दशा में भयंकर हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चों को ले-ले कर देहातों में भाग रहे थे। पर हमारे दोनों खिलाड़ियों को इसकी जरा भी फिक्र न थी। वे घर से आते तो गलियों में होकर। डर था कि कही किसी बादशाही मुलाजिम की निगाह न पड़ जाय, नहीं तो बेगार में पकड़े जायँ। हजारों रुपये सालाना की जागीर मुफ्त में ही हजम करना चाहते थे।

एक दिन दोनों मित्र मस्जिद के खंडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे। मिर्जा की बाजी कुछ कमजोर थी। मीर साहब किश्त पर किश्त दे रहे थे। इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखाई दिये। यह गोरों की फौज थी जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी।

मीर साहब- अंगरेजी फौज आ रही है खुदा खैर करे!

मिर्जा- आने दीजिए, किश्त बचाइए। लो यह किश्त!

मीर- तोपखाना भी है। कोई पाँच हजार आदमी होगे, कैसे जवान हैं। लाल बंदरों से मुँह हैं। सूरत देखकर खौफ मालूम होता है।

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