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प्रेमचन्द की कहानियाँ 40

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9801

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग


मोटेराम- सब दिन समान नहीं बीतते।

सुवामा- अब तो जो ईश्वर करेगा सो होगा, क्या कर सकती हूँ।

मोटेराम- हां ईश्वर की इच्छा तो मूल ही है, मगर तुमने भी कुछ सोचा है?

सुवामा- हाँ, गाँव बेच डालूंगी।

मोटेराम- राम-राम। यह क्या कहती हो? भूमि बिक गयी, तो फिर बात क्या रह जाएगी?

मोटेराम- भला, पृथ्वी हाथ से निकल गयी, तो तुम लोगों का जीवन निर्वाह कैसे होगा?

सुवामा- हमारा ईश्वर मालिक है। वही बेड़ा पार करेगा।

मोटेराम- यह तो बड़े अफसोस की बात होगी कि ऐसे उपकारी पुरुष के लड़के-बाले दुख भोगें।

सुवामा- ईश्वर की यही इच्छा है, तो किसी का क्या बस?

मोटेराम- भला, मैं एक युक्ति बता दूँ कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।

सुवामा- हाँ, बतलाइए बड़ा उपकार होगा।

मोटेराम- पहले तो एक दरख़्वास्त लिखवाकर कलक्टर साहिब को दे दो कि मालगुज़ारी माफ़ की जाये। बाकी रुपये का बन्दोबस्त हमारे ऊपर छोड दो। हम जो चाहेंगे करेंगे, परन्तु इलाके पर आँच ना आने पाएगी।

सुवामा- कुछ प्रकट भी तो हो, आप इतने रुपये कहाँ से लायेंगे?

मोटेराम- तुम्हारे लिए रुपये की क्या कमी है? मुंशी जी के नाम पर बिना लिखा-पढ़ी के पचास हजार रुपये का बन्दोस्त हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। सच तो यह है कि रुपया रखा हुआ है, तुम्हारे मुँह से ‘हाँ’ निकलने की देरी है।

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