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प्रेमचन्द की कहानियाँ 40

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9801

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग


चौधरी महाशय के तीन सुयोग्य पुत्र थे। बड़े लड़के बितान एक सुशिक्षित मनुष्य थे। डाकिए के रजिस्टर पर दस्तखत कर लेते थे। ये बड़े अनुभवी, बड़े मर्मज्ञ, बड़े नीति कुशल थे, मिर्जई की जगह कमीज पहनते, कभी-कभी सिगरेट भी पीते, जिससे उनका गौरव बढ़ता था। यद्यपि उनके दुर्व्यसन बूढ़े चौधरी को नापसन्द थे, पर बेचारे विवश थे, क्योंकि अदालत और कानून के मामले बितान के हाथों में थे। वह कानून का पुतला था। कानून के दफे जबान पर रखे रहते थे। गवाह गढ़ने में वह उस्ताद था। मझले लड़के शान चौधरी कृषि विभाग के अधिकारी थे, बुद्धि के मन्द, लेकिन शरीर से बड़े परिश्रमी। जहां घास न जमती हो, वहां केशर जमा दें। तीसरे लड़के का नाम गुमान था। यह बड़ा रसिक, साथ ही उद्दंड था। मुहर्रम के ढोल इतने जोरों से बजाता कि कान के पर्दे फट जाते। मछली फँसाने का बड़ा शौकीन था, बड़ा रंगीला जवान था। खंजड़ी बजा-बजाकर जब मीठे स्वर से खयाल गाता, तो रंग जम जाता। उसे दंगल का ऐसा शौक था कि कोसों तक धावा मारता, पर घर वाले कुछ ऐसे शुष्क थे कि उनके व्यसनों से तनिक भी सहानुभूति न रखते थे। पिता और भाइयों ने तो उसे ऊसर खेत समझ रखा था। घुड़की-धमकी, शिक्षा और  उपदेश, स्नेह और विनय किसी का उस पर कुछ भी असर नहीं हुआ। हाँ, भावजें अभी तक उसकी ओर से निराश न हुई थीं। वह अभी तक उसे कड़वी दवाइयाँ पिलाएं जाती थीं। पर आलस्य वह राज-रोग है, जिसका रोगी भी कभी नहीं सँभलता।

ऐसा कोई बिरला ही दिन जाता होगा कि बाँके गुमान को भावजों के कटु वाक्य न सुनने पड़ते हों। यह विषैले शर कभी-कभी उसके कठोर हृदयों में चुभ भी जाते, किन्तु यह घाव रात-भर से अधिक न रहता। भोर होते ही थकान के साथ ही यह पीड़ा भी शांत हो जाती। तड़का हुआ, उसने हाथ-मुँह धोया, बंशी उठायी और तलाब की ओर चल खड़ा हुआ। भावजें फूलों की वर्षा किया करतीं, बूढ़े चौधरी पैंतरे बदलते रहते और भाई लोग तीखी निगाह से देखा करते, पर अपनी धुन में पूरा बाँका गुमान उन लोगों के बीच में से इस तरह अकड़ता चला जाता, जैसे कोई मस्त हाथी  कुत्तों के बीच से निकल जाता है। उसे सुमार्ग पर लाने के लिए क्या-क्या उपाय नहीं किए। बाप समझाता, बेटा ऐसी राह चलो जिसमें तुम्हें भी चार पैसे मिलें और गृहस्थी का भी निर्वाह हो। भाइयों के भरोसे कब तक रहोगे? मैं पका आम हूँ आज टपक पडूँ या कल। फिर तुम्हारा निबाह कैसे होगा? भाई बात भी न पूछेंगे, भावजों के रंग देख ही रहे हो। तुम्हारे भी लड़के-बाले हैं; उनका भार कैसे सँभालोगे? खेती में जी न लगे, कहो कानिस्टेवली में भरती करा दूँ।

बाँका गुमान खड़ा-खड़ा बात सुनता रहा, लेकिन पत्थर का देवता था–कभी न पसीजता। इन महाशय  के अत्याचार का दण्ड उनकी स्त्री बेचारी को भोगना पड़ता था। कड़ी मेहनत के घर में जितने काम होते, वह उसी के सिर थोपे जाते। उपले पाथती, कुएँ से पानी लाती, आटा पीसती और इतने पर भी जेठानियाँ सीधे मुँह बात न करतीं, वाक्य-बाणों से छेदा करतीं। एक बार जब वह पति से कई दिन रूठी रही, तो  बाँके गुमान कुछ नर्म हुए। बाप से जाकर बोले– मुझे कोई दुकान खुलवा दीजिए।

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