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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


मैं- जिस दिन वह शेर का शिकार खेलने गये थे।

रानी- क्या तेरे सामने ही शेर ने उन पर चोट की थी?

मैं- हाँ, मेरी आँखों के सामने।

रानी उत्सुक होकर खड़ी हो गई और बड़े दीन-भाव से बोली- तू उनकी लाश का पता लगा सकती है?

मैं- ऐसा न कहिए, वह अमर हों। वह दो सप्ताहों से मेरे यहाँ मेहमान हैं।

रानी हर्षमय आश्चर्य से बोलीं- मेरा रणधीर जीवित है?

मैं- हाँ, अब उनके चलने-फिरने में शक्ति आ गई है।

रानी मेरे पैरों पर गिर पड़ीं!

तीसरे दिन अर्जुननगर की कुछ और ही शोभा थी। वायु आनंद के मधुर स्वर से गूँजती थी; दूकानों ने फूलों का हार पहना था। बाजारों में आनंद के उत्सव मनाए जा रहे थे। शोक के काले वस्त्रों की जगह केशर का सुहावना रंग बधाई दे रहा था। इधर सूर्य ने ऊषा-सागर से सिर निकाला, उधर सलामियाँ दगनी आरंभ हुई। आगे-आगे मैं एक सब्ज घोड़े पर सवार आ रही थी, और पीछे राजकुमार का हाथी, सुनहरे झूलों से सजा, चला आता था। स्त्रियाँ अटारियों पर मंगल गीत गातीं और पुष्पों की वृष्टि करती थीं। राजभवन के द्वार पर रानी मोतियों से आंचल भरे खड़ी थीं। ज्यों ही राजकुमार हाथी से उतरे, वह उन्हें गोद में लेने के लिए दौड़ीं और उन्हें छाती से लगा लिया।

ऐ मुसाफिर, आनंदोत्सव समाप्त होने पर जब मैं बिदा होने लगी, तो रानी महोदया ने सजल नयन होकर कहा- बेटी, तूने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसका फल तुझे भगवान देंगे। तूने मेरे राजवंश का उद्धार कर दिया, नहीं तो कोई पितरों को जल देने वाला भी न रहता। मैं तुझे कुछ विदाई देना चाहती हूँ; वह तुझे स्वीकार करनी पड़ेगी। अगर रणधीर मेरा पुत्र है, तो तू मेरी पुत्री है। तूने ही इस राज्य का पुनरुद्धार किया है। इसलिए माया-बंधन से तेरा गला नहीं छूटेगा। मैं अर्जुननगर का प्रांत उपहार स्वरूप तेरी भेंट करती हूँ।

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