कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41 प्रेमचन्द की कहानियाँ 41प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग
गौरा- भला, बहन ऐसा भी हो सकता है कि यहां तुम्हें छोड़ दूं?
मंगरू यात्रियों से बात-बात पर बिगड़ता था, बात-बात पर गालियां देता था, कई आदमियों को ठोकर मारे और कई को केवल गांव का जिला न बता सकने के कारण धक्का देकर गिरा दिया। गौरा मन-ही-मन गड़ी जाती थी। साथ ही अपने स्वामी के अधिकार पर उसे गर्व भी हो रहा था। आखिर मंगरू उसके सामने आकर खड़ा हो गया और कुचेष्टा-पूर्ण नेत्रों से देखकर बोला- तुम्हारा क्या नाम है?
गौरा ने कहा- गौरा।
मगरू चौंक पड़ा, फिर बोला- घर कहां है?
मदनपुर, जिला बनारस।
यह कहते-कहते हंसी आ गयी। मंगरू ने अबकी उसकी ओर ध्यान से देखा, तब लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोला- गौरा! तुम यहां कहां? मुझे पहचानती हो?
गौरा रो रही थी, मुंह से बात न निकलती।
मंगरू फिर बोला- तुम यहां कैसे आयीं?
गौरा खड़ी हो गयी, आंसू पोंछ डाले और मंगरू की ओर देखकर बोली- तुम्हीं ने तो बुला भेजा था।
मंगरू- मैंने ! मैं तो सात साल से यहां हूं।
गौरा- तुमने उसे बूढ़े ब्राह्मण से मुझे लाने को नहीं कहा था?
मंगरू- कह तो रहा हूं, मैं सात साल से यहां हूं। मरने पर ही यहां से जाऊंगा। भला, तुम्हें क्यों बुलाता?
गौरा को मंगरू से इस निष्ठुरता का आशा न थी। उसने सोचा, अगर यह सत्य भी हो कि इन्होंने मुझे नहीं बुलाया, तो भी इन्हें मेरा यों अपमान न करना चाहिए था। क्या वह समझते हैं कि मैं इनकी रोटियों पर आयी हूं? यह तो इतने ओछे स्वभाव के न थे। शायद दरजा पाकर इन्हें मद हो गया है। नारीसुलभ अभिमान से गरदन उठाकर उसने कहा- तुम्हारी इच्छा हो, तो अब यहां से लौट जाऊं, तुम्हारे ऊपर भार बनना नहीं चाहती?
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