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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


मैं शिमले से वापस आने की तैयारी कर रहा था। मेहर सिंह उसी रोज मुझसे विदा होकर अपने घर चला गया था। मेरी तबियत बहुत उचाट हो रही थी। असबाब सब बंध चुका था कि एक गाड़ी मेरे दरवाजे पर आकर रुकी और उसमें से कौन उतरा? मिस लीला! मेरी आंखों को विश्वास न हो रहा था, चकित होकर ताकने लगा। मिस लीलावती ने आगे वढ़कर मुझे सलाम किया और हाथ मिलाने को बढ़ाया। मैंने भी बौखलाहट में हाथ तो बढ़ा दिया पर अभी तक यह यकीन नहीं हुआ था कि मैं सपना देख रहा हूं या हकीकत है। लीला के गालों पर वह लाली न थी न वह चुलबुलापन बल्कि वह बहुत गम्भीर और पीली-पीली-सी हो रही थी। आखिर मेरी हैरत कम न होते देखकर उसने मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहा- तुम कैसे जेण्टिलमैन हो कि एक शरीफ लेडी को बैठने के लिए कुर्सी भी नहीं देते!

मैंने अंदर से कुर्सी लाकर उसके लिए रख दी, मगर अभी तक यही समझ रहा था कि सपना देख रहा हूं।

लीलावती ने कहा- शायद तुम मुझे भूल गए।

मैं- भूल तो उम्र भर नहीं सकता मगर आंखों को एतबार नहीं आता।

लीला- तुम तो बिलकुल पहचाने नहीं जाते।

मैं- तुम भी तो वह नहीं रहीं। मगर आखिर यह भेद क्या है, क्या तुम स्वर्ग से लौट आयीं!

लीला- मैं तो नैनीताल में अपने मामा के यहाँ थी।

मैं- और वह चिट्ठी मुझे किसने लिखी थी और तार किसने दिया था?

लीला- मैंने ही।

मैं- क्यों? तुमने मुझे यह धोखा क्यों दिया? शायद तुम अन्दाजा नहीं कर सकतीं कि मैंने तुम्हारे शोक में कितनी पीड़ा सही है।

मुझे उस वक्त एक अनोखा गुस्सा आया-यह फिर मेरे सामने क्यों आ गयी! मर गयी थी तो मरी ही रहती!

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