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प्रेमचन्द की कहानियाँ 42

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9803

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग


जगतसिंह- चलूँ तो यार, लेकिन विश्वास नहीं आता, तुम हमें झाँसे दे रहे हो, कचूमर निकलवा लोगे।

बाजबहादुर- तुम जानते हो, झूठ बोलने की मेरी बान नहीं है।

यह शब्द बाजबहादुर ने ऐसी विश्वासोत्पादक रीति से कहे कि उन लोगों का भ्रम दूर हो गया। बाजबहादुर के चले जाने के पश्चात् तीनों देर तक उसकी बातों की विवेचना करते रहे। अन्त में यही निश्चय हुआ कि आज चलना चाहिए।

ठीक दस बजे तीनों मित्र मदरसे पहुँच गये, किंतु चित्त में आशंकित थे। चेहरे का रंग उड़ा हुआ था।

मुंशीजी कमरे में आये। लड़कों ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, उन्होंने तीनों की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर केवल इतना कहा- तुम लोग तीन दिन से गैर हाजिर हो। देखो, दरजे में जो इम्तहानी सवाल हुए हैं, उन्हें नकल कर लो।

फिर पढ़ाने में मग्न हो गए।

जब पानी पीने के लिए लड़कों को आध घंटे का अवकाश मिला, तो तीनों मित्र और उनके सहयोगी जमा होकर बातें करने लगे।

जयराम- हम तो जान पर खेलकर मदरसे से आये थे, मगर बाजबहादुर है बात का धनी।

वलीमुहम्मद- मुझे तो ऐसा मालूम होता है, वह आदमी नहीं, देवता है। यह आँखों-देखी बात न होती, तो मुझे कभी इस पर विश्वास न आता।

जगतसिंह- भलमनसी इसी को कहते हैं। हमसे बड़ी भूल हुई कि उसके साथ ऐसा अन्याय किया।

दुर्गा- चलो, उससे क्षमा माँगें।

जयराम- हाँ, तुम्हें खूब सूझी। आज ही।

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