कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 43 प्रेमचन्द की कहानियाँ 43प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतालीसवाँ भाग
कोदई ने कहा- बस करो भाभी, बस करो।
नोहरी ने थिरकते हुए कहा- खड़े क्यों हो, आओ न जरा देखूँ कैसा नाचते हो!
कोदई बोले- अब बुढ़ापे में क्या नाचूँ?
नोहरी ने रुक कर कहा- क्या तुम आज भी बूढ़े हो? मेरा बुढ़ापा तो जैसे भाग गया। इन वीरों को देखकर भी तुम्हारी छाती नहीं फूलती? हमारा ही दु:ख-दर्द हरने के लिए तो इन्होंने यह परन ठाना है। इन्हीं हाथों से हाकिमों की बेगार बजायी हैं, इन्ही कानों से उनकी गालियाँ और घुड़कियाँ सुनी है। अब तो उस जोर-जुलुम का नाश होगा–हम और तुम क्या अभी बूढ़े होने जोग थे? हमें पेट की आग ने जलाया है। बोलो ईमान से यहाँ इतने आदमी हैं, किसी ने इधर छह महीने से पेट-भर रोटी खायी है? घी किसी को सूँघने को मिला है! कभी नींद-भर सोये हो! जिस खेत का लगान तीन रुपये देते थे, अब उसी के नौ-दस देते हो। क्या धरती सोना उगलेगी? काम करते-करते छाती फट गयी। हमीं हैं कि इतना सह कर भी जीते हैं। दूसरा होता, तो या तो मार डालता, या मर जाता। धन्य हैं महात्मा और उनके चेले कि दीनों का दु:ख समझते हैं, उनके उद्धार का जतन करते हैं। और तो सभी हमें पीसकर हमारा रक्त निकालना जानते हैं। यात्रियों के चेहरे चमक उठे, हृदय खिल उठे। प्रेम की डूबी हुई ध्वनि निकली—
एक दिन यह है कि यों बे-दस्तोपा कोई नहीं।
कोदई के द्वार पर मशालें जल रही थीं। कई गाँवों के आदमी जमा हो गये थे। यात्रियों के भोजन कर लेने के बाद सभा शुरू हुई। दल के नायक ने खड़े होकर कहा—
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