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प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


भिक्षुक डर रहा था कि कहीं उसने अनाज भर लिया और भोला ने गठरी न उठाने दी, तो कितनी भद्द होगी। और भिक्षुकों को हँसने का अवसर मिल जाएगा। सब यही कहेंगे कि भिक्षुक कितना लोभी है। उसे और अनाज भरने की हिम्मत न पड़ी।
तब सुजान भगत ने चादर लेकर अनाज भरा और गठरी बाँधकर बोले- इसे उठा ले जाओ।

भिक्षुक- बाबा, इतना तो मुझसे उठ न सकेगा।

भगत- अरे! इतना भी न उठ सकेगा! बहुत होगा, तो मन भर। भला जोर तो लगाओ, देखूँ तो उठा सकते हो या नहीं।

भिक्षुक ने गठरी को आजमाया। भारी थी, जगह से हिली भी नहीं- बोला भगत जी यह मुझसे न उठेगी।

भगत- अच्छा बताओ, किस गाँव में रहते हो?

भिक्षुक- बड़ी दूर है भगतजी, अमोला का नाम तो सुना होगा?

भगत- अच्छा आगे-आगे चलो, मैं पहुँचा दूँगा।

यह कहकर भगत ने जोर लगाकर गठरी उठायी और सिर पर रखकर भिक्षुक के पीछे हो लिए। देखनेवाले भगत का यह पौरुष देखकर चकित हो गए। उन्हें क्या मालूम था कि भगत पर इस समय कौन-सा नशा था। आठ महीने के निरंतर अविरल परिश्रम का आज उन्हें फल मिला था। आज उन्होंने अपना खोया हुआ अधिकार फिर पाया था। वही तलवार, जो केले को भी नहीं काट सकती, सग्न पर चढ़कर लोहे को काट देती है। मानव-जीवन में लाग बड़े महत्व की वस्तु है। जिसमें लाग है, वह बूढ़ा भी तो जवान है। जिसमें लाग नहीं, गैरत नहीं, वह भी तो मृतक है। सुजान  भगत में लाग थी और उसी ने उन्हें अमानुषीय बल प्रदान कर दिया था। चलते समय उन्होंने भोला की ओर समर्थ नेत्रों से देखा और बोले- ये भाट और भिक्षु खड़े हैं, कोई खाली हाथ न लौटने पाए।

भोला सिर झुकाए खड़ा था। उसे कुछ बोलने का हौसला न हुआ। वृद्ध पिता ने उसे परास्त कर दिया था।

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2. सुभागी

और लोगों के यहाँ चाहे जो होता हो, तुलसी महतो अपनी लड़की सुभागी को लड़के रामू से जौ-भर भी कम प्यार न करते थे। रामू जवान होकर भी काठ का उल्लू था। सुभागी ग्यारह साल की बालिका होकर भी घर के काम में इतनी चतुर, और खेती-बारी के काम में इतनी निपुण थी कि उसकी माँ लक्ष्मी दिल में डरती रहती कि कहीं लड़की पर देवताओं की आँख न पड़ जाय। अच्छे बालकों से भगवान को भी तो प्रेम है। कोई सुभागी का बखान न करे, इसलिए वह अनायास ही उसे डाँटती रहती थी। बखान से लड़के बिगड़ जाते हैं, यह भय तो न था, भय था - नजर का! वही सुभागी आज ग्यारह साल की उम्र में विधवा हो गयी।

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