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प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


इस प्रकार पूरे बारह वर्ष व्यतीत हो गये और तब देवी प्रसन्न हुई। रात्रि का समय था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। मंदिर में एक धुँधला-सा घी का दीपक जल रहा था। तारा दुर्गा के पैरों पर माथा नवाए सच्ची भक्ति का परिचय दे रही थी। यकायक उस पाषाण मूर्ति देवी के तन में स्फूर्ति प्रकट हुई। तारा के रोंगटे खड़े हो गए। वह धुँधला दीपक देदीप्यमान हो गया। मंदिर में चित्ताकर्षक सुगंध फैल गई और वायु में सजीवता प्रतीत होने लगी। देवी का उज्जवल रूप चन्द्रमा की भाँति चमकने लगा। ज्योतिमय नेत्र जगमगा उठे। होंठ खुल गए। आवाज आयी- तारा; मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। माँग, क्या वर माँगती है?

तारा खड़ी हो गई। उसका शरीर इस भाँति काँप रहा था, जैसे प्रातःकाल के समय कंपित स्वर में किसी कृषक के गाने का ध्वनि। उसे मालूम हो रहा था, मानो वह वायु में उड़ी जा रही है। उसे अपने हृदय में उच्च विचार और पूर्ण प्रकाश का आभास प्रतीत हो रहा था। उसने दोनों हाथ जोड़कर भक्ति-भाव से कहा- भगवती तुमने मेरी बारह वर्ष की तपस्या पूरी की, किस मुख से तुम्हारा गुणानुवाद गाऊँ। मुझे संसार की वे अलभ्य वस्तुएँ प्रदान हों, जो इच्छाओं की सीमा और मेरी अभिलाषाओं का अंत है। मैं वह ऐश्वर्य चाहती हूँ, जो सूर्य को भी मात कर दे।

देवी ने मुस्कराकर कहा- स्वीकृत है।

तारा- वह धन, जो काल-चक्र को भी लज्जित करे।

देवी ने मुस्कराकर कहा- स्वीकृत है।

तारा- वह सौंदर्य, जो अद्वितीय हो।

देवी ने मुस्कराकर कहा- यह भी स्वीकृत है।

तारा कुंवरि ने शेष रात्रि जागकर व्यतीत की। प्रभात काल के समय उसकी आँखें क्षण-भर के लिए झपक गईं। जागी तो देखा कि मैं सिर से पाँव तक हीरे व जवाहिरों से लदी हूँ। उसके विशाल भवन के कलश आकाश से बातें कर रहे थे। सारा भवन संगमरमर से बना हुआ, अमूल्य पत्थरों से जड़ा हुआ था। द्वार पर मीलों तक हरियाली छायी हुई थी। दासियाँ स्वर्णाभूषणों से लदी हुई सुनहरे कपड़े पहने हुए चारों ओर दौड़ती थीं। तारा को देखते ही वे स्वर्ण के लोटे और कटोरे लेकर दौड़ीं। तारा ने देखा कि मेरा पलंग हाथीदाँत का है। भूमि पर बड़े कोमल बिछौने बिछे हुए हैं। सिरहाने की ओर एक बड़ा सुन्दर ऊँचा शीशा रखा हुआ है। तारा ने उसमें अपना रूप देखा, चकित रह गई। उसका रूप चंद्रमा को भी लज्जित करता था। दीवार पर अनेकानेक सुप्रसिद्ध चित्रकारों के मनमोहक चित्र टँगे थे। पर ये सब-के सब तारा की सुन्दरता के आगे तुच्छ थे। तारा को अपनी सुन्दरता का गर्व हुआ। वह कई दासियों को लेकर वाटिका में गयी। वहाँ की छटा देखकर वह मुग्ध हो गयी। वायु में गुलाब और केसर घुले हुए थे। रंग-विरंग के पुष्प, वायु के मंद-मंद झोंकों से मतवालों की तरह झूम रहे थे। तारा ने एक गुलाब का फूल तोड़ लिया और उसके रंग और कोमलता की अपने अधर-पल्लव से समानता करने लगी। गुलाब में वह कोमलता न थी। वाटिका के मध्य में एक बिल्लौर जड़ित हौज था।

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