लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

242 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


साधु- तारा कुँवरि, मैं इस योग्य नहीं हूँ। यह कहकर साधु ने बीन उठायी और द्वार की ओर चला। तारा का गर्व टूक-टूक हो गया लज्जा से सिर झुक गया। वह मूर्च्छित होकर भूमिपर गिर पड़ी। मन में सोचा-मैं धन में, ऐश्वर्य में, सौंदर्य में जो अपनी समता नहीं रखती, एक साधु की दृष्टि में इतनी तुच्छ!

तारा को अब किसी प्रकार चैन नहीं था। उसे अपना भवन और ऐश्वर्य भयानक मालूम होने लगा। बस, साधु का एक चंद्रस्वरूप उसकी आँखों में नाच रहा था और उसका स्वर्गीय गान कानों में गूँज रहा था। उसने अपने गुप्तचरों को बुलाया और साधु का पता लगाने की आज्ञा दी। बहुत छानबीन के पश्चात् उसी कुटी का पता लगा। तारा नित्यप्रति वायुयान पर बैठकर साधु के पास जाती; कभी उस पर लाल, जवाहर लुटाती; कभी रत्न और आभूषण की छटा दिखाती। पर साधू इससे तनिक विचलित न हुआ। तारा के माया जाल का उस पर कुछ भी असर न हुआ।

तब तारा कुँवरि फिर दुर्गा के मंदिर में गयी और देवी के चरणों पर सिर रखकर बोली-माता, तुमने मुझे संसार के सारे दुर्लभ पदार्थ प्रदान किए। मैंने समझा था कि ऐश्वर्य में संसार को दास बना लेने की शक्ति है, पर मुझे अब ज्ञात हुआ कि प्रेम पर ऐश्वर्य, सौंदर्य और वैभव का कुछ भी अधिकार नहीं। अब एक बार मुझ पर वही कृपा-दृष्टि हो। कुछ ऐसा कीजिए कि जिस निष्ठुर के प्रेम में मैं मरी जा रही हूँ उसे भी मुझे देखे बिना चैन न आए। उसकी आँखों में भी नींद हराम हो जाए, वह भी मेरे प्रेम-मद में चूर हो जाए।

देवी के होंठ खुले, मुस्करायी। उसके अधर-पल्लव विकसित हुए बोली सुनाई दी- तारा, मैं संसार के पदार्थ प्रदान कर सकती हूँ, पर स्वर्ग-सुख मेरी शक्ति से बाहर है। 'प्रेम' स्वर्ग-सुख का मूल है।

तारा- माता, संसार के सारे ऐश्वर्य मुझे जंजाल जान पड़ते हैं। बताइए, मैं अपने प्रेम को कैसे पाऊँगी?

देवी- उसका एक ही मार्ग है, पर ही वह बहुत कठिन। भला, तुम उस पर चल सकोगी?

तारा- वह कितना कठिन हो, मैं उस मार्ग का अवलम्बन अवश्य करूँगी।

देवी- अच्छा, तो सुनो; वह सेवा-मार्ग है। सेवा करो, प्रेम सेवा ही से मिल सकता है।

तारा ने अपने बहुमूल्य जड़ाऊ आभूषणों और रंगीन वस्त्रों को उतार दिया। दासियों से बिदा हुई। राजभवन को त्याग दिया। अकेले नंगे पैर साधु की कुटी में चली आयी और सेवा-मार्ग का अवलम्बन किया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book