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प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


गोदावरी ने क्रुद्ध होकर जवाब दिया– तुम लाते ही नहीं हो तो आवे कहाँ से? मेरे कोई नौकर बैठा है?

देवदत्त को गोदावरी के कठोर वचन तीर-से लगे। आज तक गोदावरी ने उनसे ऐसी रोषपूर्ण बातें कभी न की थीं।

वे बोले– धीरे बोलो, झुँझलाने की कोई बात नहीं है।

गोदावरी ने आँख नीची करके कहा– मुझे तो जैसा आता है, वैसे बोलती हूँ। दूसरों की-सी बोली कहाँ से लाऊँ?

देवदत्त ने जरा गरम होकर कहा– आजकल मुझे तुम्हारे मिजाज का कुछ रंग ही नहीं मालूम होता। बात-बात पर तुम उलझती रहती हो।

गोदावरी का चेहरा क्रोधाग्नि से लाल हो गया। वह बैठी थी, खड़ी हो गई। उसके होंठ फड़कने लगे। वह बोली– मेरी कोई बात अब तुमको क्यों अच्छी लगेगी? अब तो सिर से पैर तक दोषों से भरी हुई हूँ। अब और लोग तुम्हारे मन का काम करेंगे। मुझसे नहीं हो सकता। यह लो संदूक की कुंजी। अपने रुपये-पैसे सँभालो, यह रोज-रोज की झंझट मेरे मान की नहीं। जब तक निभा निभाया, अब नहीं निभ सकता।

पण्डित देवदत्त मानो मूर्च्छित-से हो गए। जिस शान्ति-भंग का उन्हें भय था, उसने अत्यन्त भयंकर रूप धारण करके घर में प्रवेश किया। वह कुछ भी न बोल सके। इस समय उनके अधिक बोलने से बात बढ़ जाने का भय था। वह बाहर चले आए और सोचने लगे कि मैंने गोदावरी के साथ कौन-सा अनुचित व्यवहार किया है। उनके ध्यान में गया कि गोदावरी के हाथ से निकलकर घर का प्रबन्ध कैसे हो सकेगा! इस थोड़ी-सी आमदानी में वह न जाने किस प्रकार काम चलाती थी। क्या-क्या उपाय वह करती थी? अब न जाने नारायण कैसे पार लगावेंगे? उसे मनाना पड़ेगा, और हो ही क्या सकता है? गोमती भला क्या कर सकती है, सारा बोझ मेरे सिर पड़ेगा। मानेगी तो, पर मुश्किल से।

परन्तु पण्डितजी की ये शुभ कामनाएँ निष्फल हुईं। सन्दूक की वह कुंजी विषैली नागिन की तरह वहीं आँगन में ज्यों की त्यों तीन दिन तक पड़ी रही। किसी को उसके निकट जाने का साहस न हुआ। चौथे दिन तब पण्डितजी ने मानो जान पर खेल कर उसी कुंजी को उठा लिया। उस समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो किसी ने उनके सिर पर पहाड़ उठाकर रख दिया। आलसी आदमियों को अपने नियमित मार्ग से तिल भर हटना बड़ा कठिन मालूम होता है।

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