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प्रेमचन्द की कहानियाँ 45

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9806

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग


यह कहते-कहते एकाएक वह कांप उठे। सारी देह में सनसनी सी दौड़ गयी। मूर्छित हो कर चारपाई पर गिर पड़े और हाथ-पैर पटकने लगे।

मुंह से फिचकुर निकलने लगा। सारी देह पसीने से तर हो गयी।

आशा का सारा रोग हवा हो गया। वह महीनों से बिस्तर न छोड़ सकी थी। पर इस समय उसके शिथिल अंगों में विचित्र स्फूर्ति दौड़ गयी। उसने तेजी से उठ कर विपिन को अच्छी तरह लेटा दिया और उनके मुख पर पानी के छींटे देने लगी। महरी भी दौड़ी आयी और पंखा झलने लगी। पर भी विपिन ने आंखें न खोलीं। संध्या होते-होते उनका मुंह टेढ़ा हो गया और बायां अंग सुन्न पड़ गया। हिलाना तो दूर रहा, मुंह से बात निकालना भी मुश्किल हो गया। यह मूर्छा न थी, फालिज था।

फालिज के भयंकर रोग में रोगी की सेवा करना आसान काम नहीं है। उस पर आशा महीनों से बीमार थी। लेकिन उस रोग के सामने वह अपना रोग भूल गई। 15 दिनों तक विपिन की हालत बहुत नाजुक रही। आशा दिन-के-दिन और रात-की-रात उनके पास बैठी रहती। उनके लिए पथ्य बनाना, उन्हें गोद में सम्भाल कर दवा पिलाना, उनके जरा-जरा से इशारों को समझना उसी जैसी धैर्यशाली स्त्री का काम था। अपना सिर दर्द से फटा करता, ज्वर से देह तपा करती, पर इसकी उसे जरा भी परवा न थी।

15 दिनों बाद विपिन की हालत कुछ सम्भली। उनका दाहिना पैर तो लुंज पड़ गया था, पर तोतली भाषा में कुछ बोलने लगे थे। सबसे बुरी गत उनके सुन्दर मुख की हुई थी। वह इतना टेढ़ा हो गया था जैसे कोई रबर के खिलौने को खींच कर बढ़ा दें। बैटरी की मदद से जरा देर के लिए बैठे या खड़े तो हो जाते थे¬; लेकिन चलने−फिरने की ताकत न थी।

एक दिनों लेटे-लेटे उन्हें क्या ख्याल आया। आईना उठा कर अपना मुंह देखने लगे। ऐसा कुरूप आदमी उन्होंने कभी न देखा था। आहिस्ता से बोले- आशा, ईश्वर ने मुझे गरूर की सजा दे दी। वास्तव में मुझे यह उसी बुराई का बदला मिला है, जो मैंने तुम्हारे साथ की। अब तुम अगर मेरा मुंह देखकर घृणा से मुंह फेर लो तो मुझसे उस दुर्व्यवहार का बदला लो, जो मैंने, तुम्हारे साथ किए हैं।

आशा ने पति की ओर कोमल भाव से देखकर कहा- मैं तो आपको अब भी उसी निगाह से देखती हूं। मुझे तो आप में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता।

विपिन- वाह, बन्दर का-सा मुंह हो गया है, तुम कहती हो कि कोई अन्तर ही नहीं। मैं तो अब कभी बाहर न निकलूंगा। ईश्वर ने मुझे सचमुच दंड दिया।

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