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प्रेमचन्द की कहानियाँ 45

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9806

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग


और अब महाशयजी का पैंतालीसवाँ साल था, सुगठित शरीर था, स्वास्थ्य अच्छा, रूपवान्, विनोदशील, सम्पन्न। चाहते तो तुरन्त दूसरा ब्याह कर लेते। उनके हाँ करने की देर थी। गरज के बावले कन्यावालों ने सन्देश भेजे, मित्रों ने भी उजड़ा घर बसाना चाहा; पर इस स्मृति के पुजारी ने प्रेम के नाम को दाग न लगाया। अब हफ्तों बाल नहीं बनते; कपड़े नहीं बदले जाते। घसियारों-सी सूरत बनी हुई है, कुछ परवाह नहीं। कहाँ तो मुँह-अँधेरे उठते थे और चार मील का चक्कर लगा आते थे, कभी अलसा जाते थे तो देवीजी घुड़कियाँ जमातीं और उन्हें बाहर खदेड़कर द्वार बन्द कर लेतीं। कहाँ अब आठ बजे तक चारपाई पर पड़े करवटें बदल रहे हैं। उठने का जी नहीं चाहता। खिदमतगार ने हुक्का लाकर रख दिया, दो-चार कश लगा लिये। न लाये, तो गम नहीं। चाय आयी पी ली, न आये तो परवाह नहीं। मित्रों ने बहुत गला दबाया, तो सिनेमा देखने चले गये; लेकिन क्या देखा और क्या सुना, इसकी खबर नहीं। कहाँ तो अच्छे-अच्छे सूटों का खब्त था, कोई खुशनुमा डिजाइन का कपड़ा आ जाय, आप एक सूट जरूर बनवायेंगे। वह क्या बनवायेंगे, उनके लिए देवीजी बनवायेंगी। कहाँ अब पुराने-धुराने बदरंग, सिकुड़े-सिकुड़ाये, ढीले-ढाले कपड़े लटकाये चले जा रहे हैं, जो अब दुबलेपन के कारण उतारे-से लगते हैं और जिन्हें अब किसी तरह सूट नहीं कहा जा सकता। महीनों बाजार जाने की नौबत नहीं आती। अबकी कड़ाके का जाड़ा पड़ा, तो आपने एक रुईदार नीचा लबादा बनवा लिया और खासे भगतजी बन गये। सिर्फ कंटोप की कसर थी। देवीजी होतीं, तो यह लबादा छीनकर किसी फकीर को दे देतीं; मगर अब कौन देखनेवाला है। किसे परवाह है, वह क्या पहनते हैं और कैसे रहते हैं। 45 की उम्र में जो आदमी 35 का लगता था, वह अब 50 की उम्र में 60 का लगता है, कमर भी झुक गयी है, बाल भी सफेद हो गये हैं, दाँत भी गायब हो गये। जिसने उन्हें तब देखा हो, आज पहचान भी न सके। मजा यह है कि तब जिन विषयों पर देवीजी से लड़ा करते थे, वही अब उनकी उपासना के अंग बन गये हैं। मालूम नहीं उनके विचारों में क्रांति हो गयी है या मृतात्मा ने उनकी आत्मा में लीन होकर भिन्नताओं को मिटा दिया है। देवीजी को विधवा-विवाह से घृणा थी। महाशयजी इसके पक्के समर्थक थे; लेकिन अब आप भी विधवा-विवाह का विरोध करते हैं। आप पहले पश्चिमी या नयी सभ्यता के भक्त थे और देवीजी का मजाक उड़ाया करते थे। अब इस सभ्यता की उनसे ज्यादा तीव्र आलोचना शायद ही कोई कर सके। इस बार यों ही अँग्रेजों के समय-नियन्त्रण की चर्चा चल गयी। मैंने कहा, 'इस विषय में हमें अंग्रेजों से सबक लेना चाहिए।' बस, आप तड़पकर उठ बैठे और उन्मत्त स्वर में बोले 'क़भी नहीं, प्रलय तक नहीं। मैं इस नियन्त्रण को स्वार्थ का स्तम्भ, अहंकार का हिमालय और दुर्बलता का सहारा समझता हूँ। एक व्यक्ति मुसीबत का मारा आपके पास आता है। मालूम नहीं, कौन-सी जरूरत उसे आपके पास खींच लायी है; लेकिन आप फरमाते हैं मेरे पास समय नहीं। यह उन्हीं लोगों का व्यवहार है, जो धन को मनुष्यता के ऊपर समझते हैं, जिनके लिए जीवन केवल धन है। जो व्यक्ति सहृदय है, वह कभी इस नीति को पसन्द न करेगा। हमारी सभ्यता धन को इतना ऊँचा स्थान नहीं देती थी। हम अपने द्वार हमेशा खुले रखते थे। जिसे जब जरूरत हो, हमारे पास आये। हम पूर्ण तन्मयता से उसका वृत्तान्त सुनेंगे और उसके हर्ष या शोक में शरीक होंगे। अच्छी सभ्यता है! जिस सभ्यता की स्पिरिट स्वार्थ हो, वह सभ्यता नहीं है; संसार के लिए अभिशाप है, समाज के लिए विपत्ति है।'

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