लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 45

प्रेमचन्द की कहानियाँ 45

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9806

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

239 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग


फिर मैंने देखा कि मैं वधू के द्वार पर पहुँच गया। जनवासे में वही शोर-गुल, चिल्लपों मचा हुआ था जैसा दस्तूर है, जरा देर में मुझसे कहा गया कि पाणिग्रहण का मुहूर्त आ गया, चलो। अब मेरे लिए कठिन परीक्षा का समय था। जिस तरह अब तक बिना कान पूँछ हिलाए सब कुछ करता आया हूँ अगर उसी तरह इस वक्त भी चुपके से चला गया तो अनर्थ हो जाएगा। पाँव में बेड़ी पड़ जाएगी और मैं कहीं का न रहूँगा। अगर यह जवानी मरीचिका ही निकली तो शेष जीवन कलंकित ही नहीं, दुःखमय हो जाएगा। कहीं का न रहूँगा। क्या कहकर जान बचाऊँ? कौन-सा बहाना करूँ? लोग मेरी बातों पर हँसेंगे और मुझे पागल समझेंगे, लेकिन यह जवानी बर्फ़ की तरह पिघल गई तो इस युवती के साथ कितनी छीछालेदर होगी!

मैं उठकर भागा, जामा-जोड़ा-मौर पहने लपड़-सपड़ करता भागा। मेरे पीछे लोग दौड़े। मैं इस तरह जान छोड़कर भागा जा रहा था, मानो कोई भयंकर जंतु मेरे पीछे पड़ा हुआ हो, यहाँ तक कि सामने एक नदी आ गई और मैं उसमें कूद पड़ा।

बस, नींद खुल गई। देखता हूँ तो चारपाई पर पड़ा हुआ हूँ मगर साँस फूल रही है।

समाप्त


...Prev |

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book