कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 46 प्रेमचन्द की कहानियाँ 46प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग
इसी तरह घर के सब आदमी अपने-अपने अवसर पर प्यारी को दो-चार खोटी-खरी सुना जाते थे, और वह गरीब सबकी धौंस हँसकर सहती थी। स्वामिनी का यह धर्म है कि सबकी धौंस सुन ले और करे वही, जिसमें घर का कल्याण हो! स्वामित्व के कवच पर धौंस, ताने, धमकी किसी का असर न होता। उसकी स्वामिनी की कल्पना इन आघातों से और भी स्वस्थ होती थी। वह गृहस्थी की संचालिका है। सभी अपनेअपने दुःख उसी के सामने रोते हैं, पर जो कुछ वह करती है, वही होता है। इतना उसे प्रसन्न करने के लिए काफी था।
गाँव में प्यारी की सराहना होती थी। अभी उम्र ही क्या है, लेकिन सारे घर को सँभाले हुए है। चाहती तो सगाई करके चैन से रहती। इस घर के पीछे अपने को मिटाये देती है। कभी किसी से हँसती-बोलती भी नहीं, जैसे कायापलट हो गयी।
कई दिन बाद दुलारी के कड़े बन कर आ गये। प्यारी खुद सुनार के घर दौड़-दौड़ गयी।
सन्ध्या हो गयी थी। दुलारी और मथुरा हाट से लौटे। प्यारी ने नये कड़े दुलारी को दिये। दुलारी निहाल हो गई। चटपट कड़े पहले और दौड़ी हुई बरौठे में जाकर मथुरा को दिखाने लगी। प्यारी बरौठे के द्वार पर छिपी खड़ी यह दृश्य देखने लगी। उसकी आँखें सजल हो गयीं। दुलारी उससे कुल तीन ही साल तो छोटी है! पर दोनों में कितना अंतर है। उसकी आँखें मानो उस दृश्य पर जम गयीं, दम्पति का वह सरल आनन्द, उनका प्रेमालिंगन, उनकी मुग्ध मुद्रा - प्यारी की टकटकी-सी बँध गयीं, यहाँ तक दीपक के धुंधले प्रकाश में वे दोनों उसकी नजरों से गायब हो गये और अपने ही अतीत जीवन की एक लीला आँखों के सामने बारबार नये-नये रूप में आने लगी।
सहसा शिवदास ने पुकारा- बड़ी बहू! एक पैसा दो। तमाखू मँगवाऊँ। प्यारी की समाधि टूट गयी। आँसू पोंछती हुई भंडारे में पैसा लेने चली गयी।
एक-एक करके प्यारी के गहने उसके हाथ से निकलते जाते थे। वह चाहती थी, मेरा घर गाँव में सबसे सम्पन्न समझा जाये, और इस महत्वाकांक्षा का मूल्य देना पड़ता था। कभी घर की मरम्मत के लिए, और कभी बैलों की नयी गोई खरीदने के लिए कभी नातेदारों के व्यवहारों के लिए, कभी बीमारों की दवा-दारू के लिए रुपये की जरूरत पड़ती रहती थी, और जब बहत कतरब्योंत करने पर भी काम न चलता, तो वह अपनी कोई न कोई चीज निकाल देती। और चीज एक बार हाथ से निकल कर फिर न लौटती थी। वह चाहती, तो इनमें से कितने ही खर्चों को टाल जाती; पर जहाँ इज्जत की बात आ पड़ती थी, वह दिल खोल कर खर्च करती। अगर गाँव में हेठी हो गयी, तो क्या बात रही! लोग उसी का नाम तो धरेंगे। दुलारी के पास भी गहने थे। दो-एक चीजें मथुरा के पास भी थीं, लेकिन प्यारी उनकी चीजें न छूती। उनके खानेपहनने के दिन हैं। वे इस जंजाल में क्यों फँसें।
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