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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

वास्तव में इनका नाम 'मुहम्मद' था। 'मलिक' जातिसूचक उपाधि है। जायस के निवासी होने के कारण इन्हें 'जायसी' कहा जाता हे। इस प्रकार इनका 'मलिक मुहम्मद जायसी' पूरा नाम बन जाता है। कहा जाता है कि बचपन में चेचक के कारण ये काने और कुरूप हो गये थे। एक बार इन्हें देखकर शेरशाह सूरी हंस पड़ा। इस पर इन्होंने कहा-

मोहि का हँससि कि कोहरहि।

तू मुझ पर हँसता है या कुम्हार (ईश्वर) पर? अर्थात् मेरे रूप पर क्यों हँसता है, मुझे बनाने वाले कुम्हार पर क्यों नहीं हँसता?

मृत्यु-पहले लिख चुके हैं कि अमेठी में इनकी मृत्यु संवत् १६०० में हुई। और ४९ वर्ष की आयु का इन्होंने उपभोग किया। अमेठी के राजघराने में इनका बहुत आदर था। अपने जीवन का एक काफी लम्बा भाग इन्होंने यहाँ पर बड़े सुख के साथ बिताया था। इनकी मृत्यु भी चूंकि यहीं पर हुई थी इसलिए अमेठी के राजमहलों में ही इनकी कब्र बनाई गई।

जायसी के गुरु-जायसी ने पद्मावत, अखरावट तथा आखिरी कलाम-अपनी इन तीनों रचनाओं में अपने गुरुओं का स्मरण किया है। निजामुद्दान औलिया की शिष्य-परम्परा के अनेक सूफी संतों को गुरु के रूप में स्मरण करते हुए भी वे 'सय्यद अशरफ जहाँगीर' के प्रति सबसे अधिक आस्था व्यक्त करते हुए कहते हैं--

सय्यद असरफ पीर पियारा, जेहि मोहि पन्थ दीन उजियारा।

अत: सय्यद अशरफ जहांगीर को ही इनका गुरु मानना चाहिए।

रचनाएं-जायसी की ये चार पुस्तकें प्रसिद्ध हैं-

१. पद्मावत,
२. अखरावट,
३. आखिरी कलाम,
४. महरी बाईसी।

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