भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
सम्वत् १६९२ के लगभग बिहारीलाल अपनी वार्षिक वृत्ति लेने के लिए जयपुर गये। उस समय जयपुरनरेश सवाई जयसिंह मिरजा राजा जयशाह अपनी नवविवाहिता रानी के प्रेम में इतने आसक्त थे कि राजकाज देखने के लिए अन्तःपुर से बाहर तक नहीं निकलते थे। बिहारी ने उनकी ऐसी दशा देखकर मालिन के द्वारा निम्न दोहा उनके पास पहुंचा दिया।
नहि पराग नहि मधुर मधु नहि विकास इहि काल।
अली कली ही ते बँध्यो आगे कौन हवाल।।
कहा जाता है कि महाराज इस दोहे से इतने प्रभावित हुए कि वे फिर से राज-काज की ओर ध्यान देने लग गये। चौहानी रानी तो इस कार्य से बिहारी पर इतनी प्रसन्न हुई कि उसने अन्तःपुर की दीवार पर बिहारी का एक पूरा तैलचित्र बनवा दिया।
इस घटना के कुछ दिनों पश्चात् राजकुमार रामसिंह का जन्म हुआ। बिहारी को रामसिंह का गुरु बना दिया गया। साथ ही महाराज ने बिहारी को आज्ञा दी कि वे ऐसे ही सुन्दर दोहों का निर्माण करते चले। प्रत्येक दोहे पर एक अशर्फी पुरस्कार की घोषणा भी की गई। तदनुसार बिहारी ने ७१९ दोहों का निर्माण किया, जो 'बिहारी-सतसई' के नाम से प्रसिद्ध है।
सतसई समाप्त होने के कुछ समय पश्चात् बिहारी की पत्नी का देहान्त हो गया। इससे विरक्त होकर वे जयपुर से वृन्दावन चले आये और वहीं पर सम्वत् १७२१ में स्वर्ग सिधार गये।
स्वभाव एवं व्यक्तित्व-बिहारी रीतिकालीन शृंगारिक कवि होते हुए भी निर्भीक, साहसी और सात्विक प्रवृत्ति के कलाकार थे। दरबारी कवि होते हुए भी उन्होंने रीतिकालीन अन्य कवियों की भाँति अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा में झूठी-सच्ची कविताएं नहीं लिखीं। सारी बिहारी-सतसई में मिरजा राजा जयशाह से सम्बन्ध रखने वाले केवल ८ दोहे आये हैं। उनमें भी कहीं जयशाह की झूठी प्रशंसा नहीं है। यह प्रत्येक ऐतिहासिक व्यक्ति जानता है कि जयसिंह बड़े ही पराक्रमी, वीर और प्रबल योद्धा थे। उन्होंने मुगल सम्राटों-शाहजहाँ और औरंगजेब-की सेनाओं का सेनापतित्व करते हुए अनेक बार शत्रुओं के छक्के छुड़ाये थे। वास्तव में सेना और तोपखाने तथा अस्त्र, शस्त्र आदि के रहते हुए भी मुगल-सम्राट् तब तक विजयी नहीं हो सकते थे जब तक जयसिंह उनके साथ न हो। इस सच्चाई को-
सामां सेन सयानगी सबै साहि के साथ।
बाहुबली जयसाह जू फतै तिहारे हाथ।।
इस दोहे में प्रकट किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बिहारी एक ओर रीतिकालीन दरबारी परम्परा में रहते हुए भी स्वतन्त्र प्रकृति के निर्भीक कलाकार थे।
बिहारी रसराज शृङ्गार के अनन्य उपासक हैं। प्राकृत गाथासप्त-शतीकार महाकवि हाल, आर्यासप्तशतीकार आचार्य गोवर्धन तथा महाकवि अमरूक जैसे शृङ्गारी कवि बिहारी के आदर्श और उपजीव्य थे। इन्हीं तीनों कवियों की रचनाओं का आधार लेकर ही बिहारी ने अपने अधिकतर दोहों का निर्माण किया है। वास्तव में बिहारी शृंगार के सरस पद-निर्माण में अपने उपमान आप है।
स्मरण रहे कि बिहारी शृंगारिक ही नहीं हैं, वे उत्कट शृंगारिक होते हुए भी परम भागवत हैं। राधा और कृष्ण के प्रति उनके हृदय में अनन्य भक्ति विद्यमान है। जब वे शृंगार को छोड़कर भक्ति के दोहे लिखने बैठते हैं तो सूर आदि किसी भक्त-कवि से उनकी भक्ति कम नहीं दिखाई देती। भक्ति के साथ नीति, वैराग्य आदि विषयों के दोहे भी बड़े मार्मिक बन पड़े हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि बिहारी एक स्वाभाविक प्रतिभा के धनी हिन्दी महाकवि थे।
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