भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
रुद्रराम सोलंकी के यहाँ से भूषण कहाँ गये, इस सम्बन्ध में दो मत है। एक मत यह है कि भूषण घूमते-फिरते अपने भाई चिन्तामणि के पास जा पहुंचे, जो उस समय के मुगल-सम्राट् औरंगजेब के आश्रित थे! औरंगजेब ने भूषण को भी एक दिन कोई कविता सुनाने को कहा तो भूपण ने अपनी उद्धत और निर्भीक प्रकृति के अनुसार उत्तर दिया कि मेरी कविता सुननी है तो हाथ धोकर बैठिए। औरंगजेब ने कारण पूछा तो भूषण ने समझाया कि मेरी कविता इतनी जोशीली है कि उसे सुनते-सुनते आप उत्साहित होकर अपनी मूछों पर ताव देने लगेंगे। अत: आप हाथों को धोकर पहिले पवित्र कर लें। यह सुनते ही औरंगजेब आग-बबूला हो उठा और बोला-'यदि मेरे हाथ मूछों पर न गये तो तुम्हें भयंकर दंड मिलेगा।' पर जब भूषण ने कविता सुनाई तो औरंगजेब सचमुच वीरता के भावों से फड़क उठा और मूछों पर ताव देने लगा। अब वह क्या करता! उसे भूषण पर बहुत क्रोध आ रहा था पर अपने क्रोध को मन-ही-मन पीकर उसने इस कविता के पुरस्कार में एक अत्यन्त बूढ़ी हथिनी उसे दी, जो आज-कल में ही मरने वाली थी। भूषण कवि ने इस हथिनी का इस प्रकार वर्णन किया है-
तिमिरलङ्ग लई मोल चली बब्बर के हलके।
रही हुमायूँ साथ गई अकबर के दल के।।
जहाँगीर जस लियो पीठि को भार छुड़ायो।
शाहजहाँ करि न्याय ताहि को माड़ चटायो।।
बल रहति भई पौरुष थक्यो, भागी फिरत बन स्यार डर।
औरङ्गजेब करिनी सोई, दीन्ही कवि भूषण घर।।
किन्तु साथ ही औरंगजेब ने ऐसे मुँहफट उद्दंड कवि का तत्काल काम तमाम कर डालने का निश्चय कर डाला। भूषण भी औरंगजेब के दुष्ट आशय को समझ कर रातोंरात दिल्ली से भाग निकले और चलते-चलते दक्षिण में महाराज शिवाजी के पास जा पहुंचे। कुछ विद्वानों का कहना है कि भूषण रुद्रराम के यहाँ से सीधे शिवाजी महाराज के यहाँ पहुंचे थे।
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