भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
पठन-पाठन के कम के साथ-ही-साथ आपकी साहित्य-साधना भी सफलता के साथ चलती रही। कविता की ओर तो आपकी बचपन से ही प्रवृत्ति थी। कुछ बड़ी होने पर आप अपनी माता के बनाये हुए पदों के बीच-बीच में अपनी पंक्तियाँ जोड़ने लगीं। इस प्रकार धीरे-धीरे स्वतन्त्र रूप से भी कविताएँ करने लगीं। किन्तु अपनी इन साधारण तुकबन्दियों को वे किसी दूसरे को दिखाये बिना ही फाड़ कर फेंक दिया करतीं। तुकबन्दियाँ बनाना और उन्हें नष्ट कर देना यह क्रम कई वर्षों तक चलता रहा, पर अवस्था और शिक्षा के विकास के साथ-ही-साथ उनकी कविता में भी प्रौढ़ता आने लगी। धीरे-धीरे वे अपनी रचनाएँ 'चाँद' में प्रकाशनार्थ भेजने लगीं। उन कविताओं के प्रकाशित होते ही हिन्दी-संसार ने आपका बड़े उत्साह के साथ स्वागत किया। हिन्दी-जगत के द्वारा इस प्रकार प्रोत्साहन पाकर महादेवी जी की काव्य-साधना उत्तरोत्तर विकसित होने लगी। और आज वे हिन्दी-जगत् में अपना एक अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान बना चुकी हैं।
महादेवी जी कई वर्षो तक चाँद की सम्पादिका भी रह चुकी है। इधर अनेक वर्षों से आप प्रयाग-महिला-विद्यापीठ की आचार्या के पद पर कार्य कर रही हैं। साहित्यकार-संसद नामक संस्था के द्वारा आप हिन्दी के लेखकों की सहायता करने का भी स्तुत्य प्रयत्न कर रही हैं।
आपको नीरजा नामक रचना पर ५००) का सेक्सरिया-पुरस्कार और 'यामा' पर १२००) रुपये का मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हो चुका है। सेक्सरिया पुरस्कार के ५००) आपने महिला-विद्यापीठ को दान दे दिये।
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