भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
पन्द्रहवें वर्ष में पदार्पण करते-करते, जबकि वे अभी नवीं श्रेणी में ही पढ़ रहे थे, उनका विवाह भी हो गया। इसी समय उनके पिता का देहांत हो गया। इन दोनों घटनाओं ने प्रेमचंद जी के जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव डाला। छोटे भाई, विमाता तथा पत्नी इन तीनों प्राणियों के पालन-पोषण व अपनी पढ़ाई के खर्च के भार से पन्द्रह वर्ष की छोटी-सी अवस्था में ही प्रेमचंद जी की कमर टूट गई। विवश होकर उन्हें स्कूल छोड़ देना पड़ा। वे गोरखपुर से बनारस आ गये। यहाँ पाँच रुपये मासिक की ट्यूशन कर किसी प्रकार से मैट्रिक परीक्षा पास की। गांव से पाँच मील चलकर प्रतिदिन कॉलेज पढ़ने जाना, ट्यूशन पढ़ाना, परिवार का पालन-पोषण करना, रूखा- सूखा, ठंडा बासी भोजन कर दिन काटना और ऊपर से पत्नी व विमाता का रूखा व्यवहार और उनका रात-दिन का पारस्परिक लड़ाई-झगड़ा इन सब शारीरिक और मानसिक कष्टों के कारण प्रेमचंद की दशा अत्यन्त दयनीय हो उठी। फिर भी उन्होंने हिम्मत न हारी और दो बार इन्टर परीक्षा में प्रविष्ट हुए। पर गणित के कारण दोनों बार ही सफल न हो सके। ऐसे ही समय में उन्हें स्कूल-मास्टर की अठारह रुपये मासिक की नौकरी मिल गई। सन १९०२ में इलाहाबाद ट्रेनिंग-कालेज से जे. टी. सी. की परीक्षा पास की और वहीं मॉडल स्कूल में हैडमास्टर बन गये।
इस समय तक प्रेमचंद जी की साहित्यिक प्रतिभा प्रस्फुटित होने लग पड़ी थी और उन्होंने सन् १९०२ में 'प्रेमा' तथा १९०४ में 'हम खुर्मा हम सवाब' नामक उपन्यास उर्दू में लिख डाले। इस समय तक आपका अध्ययन अत्यधिक व्यापक हो गया था। दर्शन, इतिहास, राजनीति आदि विषयों का आप रात-दिन मन्थन करते रहते। सन् १९०५ मे कानपुर बदली होने पर वे 'जमाना' के संपादक मुन्शी दयानारायण 'निगम' के संपर्क में आये। उनके संपर्क से प्रेमचंद जी को साहित्यिक प्रतिभा के विकास में पर्याप्त योग मिला। सन् १९०८ में वे स्कूलों के 'सबडिप्टी इन्स्पेक्टर' बनकर हमीरपुर पहुंचे, तो वहाँ आपको बुन्देलखण्डी देहातों के दौरों में भारतीय कृषक-जीवन को निकट से देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। 'रानी सारंधा', 'राजा हरदौल' आदि ऐतिहासिक कहानियाँ यहीं लिखी गई, इसी समय 'सोजेवतन' नामक देशभक्तिपूर्ण पाँच उर्दू कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसके कारण अंग्रेज-सरकार बौखला उठी और पुस्तक की पाँच सौ प्रतियाँ जला दी गई। साथ ही प्रेमचंद जी को भविष्य में ऐसी कोई रचना न लिखने के लिए सावधान भी किया गया।
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