भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
सन् १९१४ में वे स्थानान्तरित होकर बस्ती आ पहुँचे जहाँ उन्हें स्वर्गीय पंडित मन्नन द्विवेदी गजपुरी के सम्पर्क से हिन्दी में लिखने की प्रबल प्रेरणा प्राप्त हुई। इसी समय 'सेवासदन' समाप्त हुआ। इससे पूर्व 'सप्त सरोज' नामक हिंदी-कहानियों का संग्रह पर्याप्त लोकप्रिय हो चुका था। यहाँ इनकी पेचिश की बीमारी ने उग्र रूप धारण कर लिया, अत: उन्हें गोरखपुर गवर्नमेन्ट नार्मल स्कूल का हैडमास्टर बनाकर भेज दिया गया। वहीं पर इनके प्रथम पुत्र श्रीपतराय का जन्म हुआ। सन् १९१६ के लगभग इनकी अनुभूति बड़ी तीव्र हो गई और 'प्रेमाश्रम' का प्रारम्भ हुआ। महात्मा गाँधी के राष्ट्रीय आन्दोलन से प्रभावित होकर सन् १९२१ में आपने सरकारी नौकरी छोड़ दी। कानपुर से आप काशी आये, जहाँ डेढ़ वर्ष तक 'मर्यादा' का सम्पादन कर काशीविद्यापीठ में अध्यापक बन गये। सन् १९२३ में सरस्वती-प्रेस की स्थापना की गई। सन् १९२८ में उन्होंने 'माधुरी' का सम्पादन-भार सँभाला और सन् १९३० में 'हंस' नामक एक साहित्यिक पत्र का श्रीगणेश किया। इस मासिक पत्र के साथ-साथ 'जागरण' नामक एक साप्ताहिक पत्र भी प्रारम्भ किया गया। अत्यधिक घाटा उठाकर भी प्रेमचंदजी इन दोनों पत्रों को सन् १९३१ से १९३५ तक निरंतर चलाते रहे। 'रंगभूमि', 'ग़बन' और 'कर्मभूमि' नामक बड़े-बड़े उपन्यास भी इसी अवधि में प्रकाशित हुए। अलवर के महाराज ने उन्हें स्थायी रूप से अपने यहाँ बुलाना चाहा पर उनकी स्वाभिमानी प्रवृत्ति ने किसी राजा के यहाँ रहना स्वीकार नहीं किया।
सन् १९३४ में वे बम्बई में फिल्म-कम्पनी में कहानी लिखने को चले गये, पर एक वर्ष में ही वहाँ के वातावरण से ऊब कर बम्बई छोड़कर बनारस लौट आये। इस समय प्रेमचंद जी का सबसे गौरवमय ग्रंथ 'गोदान' लिखा जाने लगा। सन् १९३६ में गोदान प्रकाशित हुआ। इसके प्रकाशित होने के कुछ मास अनन्तर अपने अंतिम उपन्यास 'मंगलसूत्र' को अधूरा ही छोड़कर यह हिन्दी का महान् कथाकार हम से सदा के लिए विदा हो गया। वास्तव में प्रेमचंद जी ने जीवन-भर आर्थिक संकटों की चक्की में पिसते हुए भी जिस गौरवमय कथा-साहित्य का सृजन किया है उसके कारण वे सदा अमर रहेंगे।
प्रेमचंद जी वास्तव में हिन्दी के एक महान् कलाकार थे। नानाविध अभावों से ग्रस्त निम्नमध्यवर्ग का जैसा सजीव सहानुभूतिपूर्ण चित्र प्रेमचंद जी के कथा-साहित्य (कहानी और उपन्यास) में उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ ही है। पीड़ित मानवता की पुकार को उन्होंने बड़े ध्यान से सुना और उसे बड़े ही मर्मस्पर्शी कलात्मक रूप में विश्व को सुनाया। वे जनता के सच्चे प्रतिनिधि कलाकार थे। यही कारण है कि आज हिन्दी वालों की ओर से बिना किसी प्रकार के प्रचार, प्रोपेगंडा, विज्ञापनबाजी के भी प्रेमचंद की रचनाएं चीन और रूस तक की भाषाओं में अनूदित होकर वहाँ की जनता के द्वारा सोत्साह पढ़ी जा रही है। अभी ३१ जुलाई सन् १९५५ को जहाँ भारत के विभिन्न नगरों में 'प्रेमचंद-जयन्ती' मनाने का आयोजन हुआ, वहाँ रूस की अनेक संस्थाओं ने बड़ी धूमधाम के साथ प्रेमचंद-जयन्ती मनाकर विश्व-भर में यह घोषित कर दिया कि प्रेमचंद वास्तव में किसी देश या जाति- विशेष के नहीं प्रत्युत अखण्ड मानवता के प्रचारक एवं विश्व के महान् कलाकार थे।
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