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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

हिन्दू-मुस्लिम-ऐक्य-समाज को उनकी सबसे बड़ी देन हिन्दू-मुस्लिम-ऐक्य की भावना है। कबीर से पूर्व हिन्दू और मुंसलमान एक दूसरे से सर्वथा अलग-थलग पडे हुए थे। उन्होंने देखा कि धर्म के बाह्य विधि-विधानों के कारण हिन्दू और मुसलमान आपस में लड़ते-भिड़ते हैं इस-लिए उन्होंने इन दोनों धर्मो के बाहरी रूपों का जोर-शोर से खण्डन आरम्भ कर दिया। एक स्थान पर उन्होंने-

पत्थर पूझै हरि मिलै, तौ मैं पूजूँ पहार।
ताते तौ चक्की भली, पीस खाय संसार।।

कहकर हिन्दुओं की मूर्तिपूजा का खण्डन किया; क्योंकि मूर्तिपूजा एक ऐसी धार्मिक विधि है जिससे मुसलमानों को अत्यधिक चिढ़ रही है। किन्तु हिन्दू-धर्म तो इतना उदार और सहनशील है कि उसमें परस्पर-विरोधी प्रवृत्तियाँ या सभी साम्प्रदायिक सिद्धान्त अनायास ही समा सकते हैं। मूर्तिपूजा के बिना भी अपने घट और घर में ही प्रभु की उपासना कर लेने से हिन्दू-धर्म का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। हिन्दू-धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह कट्टर तथा संकीर्ण नहीं है। कबीर जी यह जानते थे कि हिन्दुओं के उदार और विश्वव्यापक धर्म के किसी एक बाह्य विधि-विधान का खण्डन कर देने से भी इसका बाल माँका न होगा, विपरीत इसके यदि मुसलमानों के निस्तत्व बाह्य विधि-विधानों का खण्डन कर उनकी निस्सारता का भाव बैठा दूंगा तो वे अवश्य ही कालान्तर में मुसलमान रहते हुए भी सच्चे भारतीय बन जायेंगे। यही कारण है कि उन्होंने हिन्दुओं की तो केवल मूर्तिपूजा आदि कुछ-एक बातों का ही खण्डन किया किन्तु मुसलमानों के एक-एक विधि- विधान का प्रबल विरोध किया। नमाज, रोजा, पीर, पैगम्बर, ईद, बकरीद, बाँग, सुन्नत आदि मुसलमानों का कोई भी ऐसा धार्मिक कृत्य एवं अंश नहीं जिसे कबीर ने अपनी तर्कपूर्ण कविता की ऊंची से काट कर टुकड़े-टुकड़े न कर डाला हो। नमाज के सम्बन्ध में वे कितना कटु सत्य कहते हैं -

कंकर पत्थर जोरिके, मस्जिद लई चुनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, (क्या) बहरा हुआ खुदाय।।

रोजा के लिए वे कहते हैं-

रोजा तुर्क नमाज गुजारे, बिस्मिल बाँग पुकारे।
ताके भिसत कहाँ ते होई, साँझे मुर्गी मारे।।

मुसलमान 'भिसत' (बहिश्त-स्वर्ग) के लिए रोजा रखते हैं, किन्तु उन्हें स्वर्ग भला कैसे मिल मकता है जबकि वे दिन-भर रोजा रख कर भी संध्या समय मुर्गी मारते हैं। अर्थात् दिन भर रखे हुए रोजे (व्रत) के पुण्य की अपेक्षा जीव-हत्या का महापाप संचित करते हैं। इसी प्रकार सुन्नत के सम्बन्ध में भी उनका कैसा तीखा व्यंग्य है-

सुनति कराय तुरक जो होइए, तो नारी को का कहिए।

कहने का तात्पर्य यह है कि कबीर ने जो बाह्य विधि-विधानों का खंडन किया, उसका एकमात्र उद्देश्य हिन्दू और मुसलमान दोनों में शुद्ध सात्विक धर्म का प्रचार था। उन्होंने हिन्दुओं को मुसलमान नहीं प्रस्तुत मुसलमानों को शुद्ध भारतीय बनाने के लिए यह सबकुछ किया। उन्होंने निम्न-वर्ग की जनता को सत्य, अहिंसा, सदाचार, संतोष आदि का पाठ पढ़ा कर उन्नत बनाने का अत्यन्त स्तुत्य प्रयत्न किया। मुसलमानों पर उनका कुछ विशेष तात्कालिक प्रभाव नहीं हुआ। वे उसी समय भारतीय रंग में नहीं रंगे जा सके। पर धीरे-धीरे उनका प्रभाव मुसलमानों पर भी बढ़ता गया। बाद में होने वाले जायसी, रहीम, रसखान आदि मुस्लिम कवियों को भारतीय भाव अपनाने के लिए कबीर से ही प्रेरणा प्राप्त हुई। वे ऐसे पक्के भारतीय बन गये कि भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ऐसे एक-एक मुस्लिम कवि पर करोड़ों हिन्दुओं को न्योछावर करने को प्रस्तुत थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि कबीर का बोया हुआ मधुर बीज यथा समय अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित होकर अत्यन्त मनोहर फल लाया।

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