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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

जन्म-स्थान- जन्म-समय के समान ही सूरदास के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में भी अनेक मत हैं। 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में लिखा है कि सूरदास जी को आगरा और मथुरा के बीच यमुना के किनारे गऊ-घाट पर वल्लभाचार्य जी के दर्शन हुए थे। इसी आधार पर गऊ-घाट के पास रुनकता नामक स्थान को सूरदास जी की जन्म-भूमि माना जाता है किन्तु बहुत से विद्वान् उनकी जन्म-भूमि रुनकता न मानकर दिल्ली के निकट सिही नामक स्थान मानते हैं। वास्तव में इन दोनों स्थानों में से सूरदास की जन्म-भूमि कौन सी है? इस पर कोई निश्चित मत देना सर्वथा कठिन है।

सूरदास जी का स्वर्गवास पारसोली में हुआ था। इसमें अन्य कोई मान्य मत नहीं है। कहा जाता है कि सूरदास जी एक दिन अन्तिम समय समीप जानकर श्रीनाथ जी के मन्दिर में अधिक नहीं ठहरे, केवल मंगल' आरती के दर्शन पाकर वापिस पारसोली चले गये। शृंगार के समय उन्हें अनुपस्थित देख गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के मन में कुछ शंका हुई। इतने में सूचना मिली कि वे अचेत पड़े है। यह सुनते ही गोस्वामी विट्ठलनाथ जी कुम्भननाथ जी, गोविन्द स्वामी, चतुर्भुजदास आदि अष्टछाप कवियों के साथ तत्काल पारसोली पहुँचे। तब विट्ठलनाथ जी ने पूछा कि सूरदास जी, कैसा जी है? इस पर उन्होंने आँखें खोलीं और कहा कि महाराज! मैं आपके दर्शनों की ही प्रतीक्षा कर रहा था, उन्होंने-

खंजन नैन रूप रस माते
अतिसै चारु चपल अनियारे पल पिंजरा न समाते।
चलि-चलि जात निकट स्रवनन के उलटि-उलटि ताटंक फँदाते
'सूरदास' अंजन गुन अटके न तरु अबहिं उड़ि जाते।

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