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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

मीराबाई

प्रभुप्रेम की परम पुजारिन प्रणय-प्रतिमा मीराबाई का जन्म संवत् १५६० के लगभग हुआ था। जोधपुर राज्य के संस्थापक राव जोधा जी के पुत्र राव दूदा जी थे। मीराबाई इन्हीं राव दूदाजी की पौत्री तथा राव रतनसिंह की इकलौती पुत्री थी। राव दूदाजी को अपने पिता की ओर से मेड़ता का प्रान्त जागीर में मिला था, इसलिए वे मेड़ता को ही अपनी राजधानी बनाकर रहने लगे। मेड़ता में रहने के कारण ही इनके वंशज मेड़तिया राठौर कहलाये। राव रत्नसिंह को जागीर में बारह गाँव प्राप्त थे। इन्हीं १२ गांवों में से एक कुड़की नामक गाँव में मीराबाई का जन्म हुआ था। अभी मीरा बच्ची ही थीं कि इनकी माता का देहान्त हो गया, अत: इनका लालन-पालन इनके दादा राव दूदाजी के, पास मेड़ते में हुआ। राव दूदाजी परम वैष्णव तथा चार भुजा जी (चतुर्भुज-रूपधारी भगवान् विष्णु) के अनन्य उपासक थे। मीरा के सुकोमल हृदय पर अपने दादा की भगवद्‌भक्ति का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे भी बाल्यावस्था में ही श्रीकृष्णा के प्रेम में मग्न होकर भगवद्‌भक्ति के गीत गाती हुई तन्मय हो जाया करती थीं। श्रीकृष्ण के साथ बचपन की यह प्रीति उत्तरोत्तर दृढ़ होती गई। मीरा ने स्वयं अनेक पदों में अपने प्रियतम मीरा के प्रभु श्रीकृष्ण साथी, बालस्नेही आदि नामों से सम्बोधित किया है। संवत् १५७२ में मीरा के पितामह राव दूदाजी का भी देहान्त हो-गया और उनके स्थान पर रत्नसिंह के बड़े भाई वीरमदेव जी गद्दी पर बैठे।

विवाह और पतिवियोग- वीरमदेव ने संवत् १५७२ के लगभग ही चित्तौड़ के परम पराक्रमी महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ मीरा का विवाह कर दिया। विवाह हुए एक वर्ष भी नहीं हुआ था कि मीरा के पति भोजराज स्वर्ग सिधार गये। इसके कुछ समय पश्चात् ही कनवाहा के युद्ध-क्षेत्र में मुगल-सम्राट् बाबर से युद्ध करते हुए मीरा के पिता राव रत्नसिंह और ससुर महाराणा-सांगा भी वीर-गति प्राप्त कर गये। इस प्रकार मीरा को बचपन ही में माता-पिता, अपने पालक-पोषक दादा, प्राणप्रिय पति एवं ससुर आदि सभी के लाड़-दुलार तथा प्यार से वंचित हो जाना पड़ा। सब प्रकार के सांसारिक आश्रय के छिन जाने से मीरा की वैराग्य-भावना व भगवदभक्ति उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। मीराबाई अब अपना सारा समय साधु-संगति तथा प्रभु के भजन में ही बिताने लगी। अपने बचपन के साथी गिरधर गोपाल के सिवा अब उसका इस संसार में कोई नहीं रह गया था जिसे वह अपने मन की बात सुनाकर हृदय का भार हलका करती। जब देखो तभी वह श्रीकृष्ण के विरह और मिलन के राग और विराग के ही गीत गाती दिखाई देती थी। वह अपने प्रियतम के प्रेम में ऐसी पगी कि सब प्रकार की लोक-लाज को छोड़ पैरों में घुँघरू बाँध प्रभु के आगे रात-दिन नाचा-गाया करती।

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