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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

वीरगाथा-काल (सं० १०५० – १३७५)

परिस्थितियाँ- अपभ्रंश-साहित्य को छोड़ देने पर हिन्दी के साहित्य का प्रारम्भ सं० १०५० से ही माना जाता है। यह देशभाषा का साहित्य अधिकतर वीरगाथात्मक रूप में ही लिखा गया है। इस काल में खुमानरासो, बीसलदेव-रासो, पृथ्वीराज-रासो आदि अनेक वीर-काव्य लिखे गये।

अब सर्वप्रथम विचारणीय प्रश्न यह है कि हिन्दी-साहित्य का प्रारंभ वीरगाथात्मक रूप में ही क्यों हुआ? इसके लिए कहा गया है कि समाज की भावनाओं का पुस्तक में संचित प्रतिबिम्ब ही साहित्य है। अत: जिस युग के समाज की जैसी विचारधारा होगी, उस युग का साहित्य भी वैसा ही होगा।

देश की राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि परिस्थितियों के अनुसार ही साहित्य का भी वैसा ही निर्माण होगा। सं० १०५० से लेकर १३७५ तक साहित्य के प्रादुर्भाव-काल में देश की दशा संघर्षपूर्ण थी। किसी केन्द्रीय शक्ति के न रहने से राजा लोग आपस में लड़-भिड रहे थे और बाहर से भी मुसलमानों के निरन्तर आक्रमण हो रहे थे। ऐसे समय में राजाओं के आश्रय में रहने वाले चारणों, भाटों या कवियों का सर्वप्रथम कर्तव्य था कि वे अपनी ओजस्विनी रचनाओं के द्वारा वीरता तथा उत्साह के भाव भर सकें। यही कारण है कि इस युग में वीरकाव्यों की प्रधानता रही। इन वीरकाव्यों के लेखकों ने अपनी रचनाओं में अपने आश्रयदाता राजाओं की वीरता तथा उनके शृंगार और प्रेम का भी विस्तृत वर्णन किया है।

भाषा- इस काल के साहित्य की भाषा अधिकतर डिंगल (राजस्थानी) व पिंगल (ब्रजभाषा या ब्रजभाषा से प्रभावित राजस्थानी) है। आल्हा-खंड आदि कुछ पुस्तकें पूर्वी हिन्दी में भी लिखी गई हैं।

विषय- राजाओं की वीरता और प्रणय-भावना ही इस युग के साहित्य का मुख्य विषय है।

शैली- इस युग का साहित्य प्रबन्ध-काव्य तथा गीत- काव्य इन दो शैलियों में लिखा गया है। यह साहित्य अधिकतर 'रासो' नाम से लिखा गया हैं। 'रासो' शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के 'रसायन' या 'रास' से हुई है। जिन पुस्तकों के रचना-काल के बारे में सन्देह है, वे 'सन्दिग्ध' और जिनके बारे में कुछ सन्देह नहीं है वे 'असन्दिग्ध' कहलाती हैं।

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