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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

शिवाजी से भेंट- महाकवि भूषण की महाराज शिवाजी से प्रथम भेंट का वृत्तान्त बड़ा रोचक है। शरद ऋतु की रात में रायगढ़ के एक शिवमन्दिर के समक्ष चबूतरे पर बैठा एक कलाकार अपने आप ही गुनगुना रहा है। इसी समय एक साँवला-सा नाटे कद का तेजस्वी पुरुष वहाँ आकर बड़ी नम्रता के साथ उस कलाकार से पूछता है कि आप कौन हैं? कहाँ से आये है? कलाकार को अपनी कविता के निर्माण-काल में ऐसी आकस्मिक बाधा पर बड़ा क्षोभ होता है और वह कुछ भी उत्तर नहीं देता। दुबारा पूछे जाने पर वह बड़ी झुंझलाहट के साथ अपना नाम और पता बताकर फिर अपने कार्य में प्रवृत्त हो गया। तब आगन्तुक ने बड़ी विनय के साथ प्रार्थना की कि कविराज, क्या कोई एक-आध कविता हमें भी सुनाने की कृपा करेंगे?

यह सुनते ही कलाकार महोदय अत्यन्त प्रसन्न हुए कि इस सुनसान रात में कोई काव्य-रसिक व्यक्ति उनकी कविता सुनने के लिए उपस्थित है। बस, फिर क्या था, वह आनन्द-विभोर हो बोल उठा-

इन्द्र जिमि जंभ पर, बाड़व सुअंभ पर
रावण सदंभ पर रघुकुलराज है।
पौन बारिवाह पर संभु रतिनाह पर,
ज्यों सहस्रबाहु पर राम द्विजराज है।

यह कविता जब तन्मयता के साथ सुनाई गई तो ऐसा समा बंधा कि वक्ता और श्रोता दोनों ही आनन्द-विभोर हो झूम उठे। नवागन्तुक काव्य-रसिक श्रोता और कोई अन्य नहीं स्वयं महाराज शिवाजी थे और यह कलाकार भूषण थे। शिवाजी ने कविता सुनने से पूर्व अपने मन में यह प्रतिज्ञा की थी कि इस रात में यह कलाकार जितनी कविताएँ सुनायेगा वे उसे उतनी लाख स्वर्ण-मुद्रा, उतने ही हाथी, उतने ही गांव पुरस्कार में देंगे। कवि ने भी आनंद में झूमते हुए एक के बाद दूसरी कविता का प्रवाह चलाया तो पूरी १८ कविताएँ सुना डालीं। पुन: प्रार्थना करने पर अब कोई नई कविता सुनाना कवि को स्वीकार न हुआ, तब महाराज शिवाजी ने कहा कि भगवन्! मैं आपका सेवक शिवा हूँ, जिससे आप मिलने के लिए आये हैं और मैंने अपने मन में यह प्रतिज्ञा की है कि आपकी कविताओं की संख्या के अनुसार उतने लाख सुवर्ण-मुद्रा, हाथी और गाँव आपकी भेंट करूँगा। इस पर भूषण बोले- हम तो अब तक तुम्हें एक साधारण रसिक श्रोता जानकर काव्यामृत का पान करा रहे थे, छत्रपत्रि शिवाजी जान कर नहीं, और न हमारे मन में पुरस्कार की ही इच्छा थी। अस्तु, अब और कविता नहीं होगी।'' तब महाराज दूसरे दिन दरबार में दर्शन देने के लिए प्रार्थना कर विदा हुए।

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