लोगों की राय

भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809

Like this Hindi book 0

हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

निरालाजी स्वछन्द प्रकृति के कवि हैं और अपनी प्रकृति के अनुकूल ही आपने कविता-कामिनी को स्वछन्दता देकर उसके स्वाभाविक संगीतमय सौन्दर्य को उद्‌भासित करने का प्रयत्न किया है। निराला जी के हम कई रूपों में दर्शन करते हैं। ये विचारों से अद्वैतवादी हैं किंतु इनका हृदय भक्ति और प्रेम का आगार है। अपनी कुछ रचनाओं में ये दार्शनिक विचारों की ओर उन्मुख जान पड़ते है।

निरालाजी आरम्भ से अन्त तक सर्वतोभावेन पूर्ण स्वतंत्र व्यक्तित्व-सम्पन्न महाकवि हैं। गुरुजनों के प्रति अत्यन्त श्रद्धावनत होते हुए भी वे आर्थिक या राजनैतिक दृष्टि से किसी को अपने से बड़ा नहीं मान सकते। सब के मुँह पर खरी-खरी कह देने की उनकी प्रकृति है। जिस वर्ष महात्मा जी इन्दौर में हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति बने थे उसी वर्ष वे उनसे मिलने के लिए गये और कहने लगे-''मैं हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति महात्मा गाँधीजी से मिलने आया हूँ, राजनीति के नेता से नहीं।'' इसी प्रकार लखनऊ में एक बार एक राजा साहिब ने प्रमुख कवि-गणों को निमन्त्रित किया। जब सब कवियों का एक-एक करके राजा साहिब से परिचय कराया जा रहा था तो निरालाजी का नम्बर आने पर ये स्वयं अपना परिचय देते हुए राजा साहब से बोले-''हम वे हैं जिनके बाप-दादाओं की पालकी तुम्हारे बाप-दादा उठाया करते थे।''

इस प्रकार कवि की निर्भीकता पद-पद पर मुखरित हो रही है। निरालाजी का साहित्यिक जीवन 'मतवाला' पत्र से आरम्भ होता है। इस पत्र में ही सर्वप्रथम इन्होंने 'सूर्यकुमार' से बदल कर अपना पूरा नाम पं० सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' प्रकाशित किया। बीस वर्ष की अवस्था में  'निराला' जी को असह्य पत्नी-वियोग सहना पड़ा। तब से वे विधुर जीवन व्यतीत कर रहे हं। एक बार किसी ने कठिनाइयों से भरे उनके विधुर जीवन के सम्बन्ध में प्रश्न किया तो वे बोले-''जैसे एक कुलीन विधवा रहती है वैसे में भी रहता हूँ।'' उनके एकमात्र पुत्र श्री रामकृष्णा संगीतशास्त्र के पारंगत हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book