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जयशंकर प्रसाद की कहानियां

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :435
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9810

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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ


“सुनिए तो!” मैंने घूमकर देखा कि मंगला पुकार रही है। वह पुरुष भी उठ बैठा है। मैं वहीं खड़ा रह गया। कुछ बोलने पर भी मैं प्रश्न की प्रतीक्षा में यथास्थित रह गया। मंगला ने कहा- ‘महाशय, कहीं रहने की जगह मिलेगी?”

“महाशय!” ऐं! तो सचमुच मंगला ने मुझे नहीं पहचाना क्या? चलो अच्छा हुआ, मेरा चित्र भी बदल गया था। एकान्तवास करते हुए और कठोर जीवन बिताते हुए जो रेखाएँ बन गयी थीं, वह मेरे मनोनुकूल ही हुई। मन में क्रोध उमड़ रहा था, गला भर्राने लगा था। मैंने कहा- ” जंगलों में क्या आप कोई धर्मशाला खोज रही हैं?” वह कठोर व्यंग था।

मंगला ने घायल होकर कहा- ”नहीं, कोई गुफा-कोई झोपड़ी। महाशय, धर्मशाला खोजने के लिए जंगल में क्यों आती?”

पुरुष कुछ कठोरता से सजग हो रहा था; किन्तु मैंने उसकी ओर न देखते हुए कहा-” झोपड़ी तो मेरी है। यदि विश्राम करना हो तो वहीं थोड़ी देर के लिए जगह मिल जायगी।”

“थोड़ी देर के लिए सही। मंगला, उठो? क्या सोच रही हो? देखो, रात भर यहाँ पड़े-पड़े मेरी सब नसें अकड़ गयी हैं।” पुरुष ने कहा। मैंने देखा कि वह कोई सुखी परिवार के प्यार में पला हुआ युवक है; परन्तु उसका रंग-रूप नष्ट हो गया है। कष्टों के कारण उसमें एक कटुता आ गयी है। मैंने कहा-” तो फिर चलो, भाई!”

दोनों मेरे पीछे-पीछे चलकर झोपड़ी में पहुँचे।

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