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जयशंकर प्रसाद की कहानियां

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :435
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9810

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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ


याकूब रुककर पीछे देखने लगा। दूर कोई चला जा रहा था। नूरी भी उठ खड़ी हुई। दोनों और नीचे झील की ओर उतर गये। जल के किनारे बैठकर नूरी ने कहा—”अब ऐसा न करना।”

“क्यों न करूँ?” मुझे काश्मीर से बढक़र और कौन प्यारा है?” मैं उसके लिए क्या नहीं कर सकता?” यह कहकर याकूब ने लम्बी साँस ली। उसका सुन्दर मुख वेदना से विवर्ण हो गया। नूरी ने देखा, वह प्यार की प्रतिमा है। उसके हृदय में प्रेम-लीला करने की वासना बलवती हो चली थी। फिर यह एकान्त और वसन्त की नशीली रात!

उसने कहा—”आप चाहे काश्मीर को प्यार करते हों! पर कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं, जो आपको प्यार करते हों!”

“पागल! मेरे सामने एक ही तसवीर है। फूलों से भरी, फलों से लदी हुई, सिन्ध और झेलम की घाटियों की हरियाली! मैं इस प्यार को छोड़कर दूसरी ओर....?”

“चुप रहिए, शाहजादा साहब! आप धीरे से नहीं बोल सकते, तो चुप रहिए।” यह कहकर नूरी ने एक बार फिर पीछे की ओर देखा। वह चञ्चल हो रही थी, मानो आज ही उसके वसन्त-पूर्ण यौवन की सार्थकता है। और वह विद्रोही युवक सम्राट अकबर के प्राण लेने और अपने प्राण देने पर तुला है। कहते हैं कि तपस्वी को डिगाने के लिए स्वर्ग की अप्सराएँ आती हैं। आज नूरी अप्सरा बन रही थी।

उसने कहा—”तो मुझे काश्मीर ले चलिएगा?”

याकूब के समीप और सटकर भयभीत-सी होकर वह बोली— ”बोलिए, मुझे ले चलिएगा। मैं भी इन सुनहरी बेड़ियों को तोडऩा चाहती हूँ।”

“तुम मुझको प्यार करती हो, नूरी?”

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