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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
यहाँ प्रभु की कृपा और दण्ड का एक विलक्षण रूप हमारे सामने आता है। ताड़का में दीनता का भाव जिसे हम नहीं देख पाते, प्रभु देख लेते हैं। प्रभु जानते हैं कि ताड़का के द्वारा जो पाप और अपराध होता हुआ दिखायी देता है, उसे वह जानबूझकर नहीं करती है।
कथा आती है कि ताड़का सुकेतु नाम के राजा की पुत्री थी। राजा सुकेतु बेटा चाहते थे। उन्होंने यज्ञादि अनेक साधन किये। इससे उन्हें संतान की प्राप्ति तो हुई पर बेटा नहीं बेटी के रूप में। तब उन्होंने निश्चय किया कि वे पुत्री को ही पुत्र की तरह रखेंगे। वह पुत्री ताड़का पुत्र की भाँति पलने-बढ़ने लगी। उसी के अनुरूप उसका स्वभाव भी विकसित होने लगा। उसे दूसरों को सताने में, कष्ट देने में आनंद आने लगा। उसकी इस प्रवृत्ति से एक ऋषि एक बार क्रोधित हो गये और उसे शाप दे दिया- जा! तू राक्षसी हो जा। ताड़का राक्षसी बन गयी। प्रभु ने सोचा कि वह बेचारी तो दूसरों की इच्छा और परिस्थिति विशेष के कारण ही राक्षसी बन गयी, इसलिए वह तो दीन ही है। अत: गोस्वामीजी जहाँ एक ओर ताड़का के वध के संबंध में लिखते हैं कि- एकहि बान प्रान हरि लीन्हा। वहीं अगले वाक्य में तुरन्त यह भी लिखते हैं कि-
दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।। 1/208/6
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