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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
इसका अभिप्राय है कि भगवान् राम में सूर्य के समान प्रकाश तो है पर उसकी दाहकता के स्थान पर चन्द्रमा के समान शीतलता विद्यमान है। दोनों रामों में परशुरामजी कृपा को सर्वथा त्याज्य मानते हैं और भगवान् राम मानते हैं कि संसार के जीवों का कार्य तो बिना कृपा के चल ही नहीं सकता। इसलिए मानस में भगवान् राम के चरित्र में पग-पग पर उनकी कृपा के दर्शन होते हैं।
वर्णन आता है कि भगवान् राम पहली बार मारीच का वध न करके उसे बिना फल के बाण से दूर फेंक देते हैं। भगवान् के इस कार्य के पीछे भी एक विलक्षणता है और इसका आनंद, मारीच के मनोभाव के रूप में उस समय प्रकट होता है। गोस्वामीजी कहते हैं कि स्वर्णमृग के रूप में मारीच जब सीताजी की ओर चलने लगा तो वह इतना अधिक प्रसन्न था कि उसे अपनी यह प्रसन्नता रावण से छिपानी पड़ी- मन अति हरष जनाव न तेही। 3/25/8 मारीच सोचता है कि मुझे प्रसन्न देखकर रावण को मेरे ऊपर संदेह हो जायगा कि कहीं यह उनसे जाकर मिल तो नहीं जायेगा? उनके पक्ष में तो नहीं चला जायेगा? और तब संभव है कि वह मुझे यहीं मार डाले, अत: उसने अपनी प्रसन्नता रावण पर प्रकट नहीं होने दी। मारीच प्रभु के पास जाने के लिये परम आतुर है। वह, इस बात की कल्पना मात्र से ही आनंद से भर उठता है कि मेरा कितना बड़ा सौभाग्य है कि मैं अपने परम स्नेही भगवान् राम के आज दर्शन कर सकूँगा। अब मारीच से कोई पूछ दे- तुम बड़े प्रसन्न दिख रहे हो। क्या तुम्हें लगता है कि जब तुम उनका दर्शन करोगे तो वे तुम्हारा स्वागत-सत्कार करेंगे? क्या तुम इसीलिए प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हो?
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