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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
सुग्रीव बड़े भगोड़े थे। उन्हें भागते हुए देखकर लक्ष्मणजी ने हँसकर प्रभु से कहा- प्रभु! देखिये न, स्वभाव छूटता नहीं। आपने मित्र भी बना लिया, फिर भी इसका भागने का स्वभाव नहीं छूटा। प्रभु ने कहा लक्ष्मण! तुम्हारी बात ठीक है कि इसका स्वभाव भागने का है पर तुमने ध्यान दिया या नहीं, भागने-भागने में भी अंतर है। यह पहली बार मायावी से डर कर भागा तो घर में छिपा। बाद में बालि के डर से भागा तो ऋष्यमूक पर्वत में छिपा, पर अब भागते-भागते अंत में मेरी ओर आ रहा है। क्या इस तरह तुम्हें उसके भागने की दिशा में कुछ अंतर नहीं दिखायी देता? सचमुच यदि कोई भागते-भागते ईश्वर की दिशा में आ जाय, तब तो उसका भगोड़ापन भी सार्थक हो जायेगा। सुग्रीव पिट कर लौटे तो लगे उलाहना देने- महाराज! आपने तो कहा था कि आप बालि को मारेंगे। प्रभु ने कहा- मित्र! मैं तुम दोनों भाइयों में भेद नहीं कर पाया। तुम दोनों बिलकुल एक-जैसे ही लग रहे थे, अत: मैं पहचान नहीं पाया कि कौन बालि है और कौन सुग्रीव है। प्रभु ने दोनों में ही उस कर्तृत्व-अभिमान को देख लिया था। प्रभु ने सुग्रीव के शरीर का अपने हाथ से स्पर्श किया जिससे वह पीड़ामुक्त हो गया। फिर उससे बोले - सुग्रीव! तुम्हारी पीड़ा दूर हो गयी न! अब मैं तुम्हें अपना बल भी दे देता हूँ जाओ! तुम एक बार फिर बालि को ललकारो और उससे युद्ध करो। मानो प्रभु यह देखना चाहते थे कि सुग्रीव में अब भी कोई कर्तृत्व-अभिमान शेष है या नहीं। वे फिर से लड़ने के लिये चल पड़े। यही जीव का स्वभाव है- कर्तृत्व-अभिमान (मैं कर्ता हूँ करने वाला हूँ) उसे, बड़ा प्रिय है।
सुग्रीव लड़ते समय सोचने लगे - मुझे भी तो अपनी ओर से कुछ करना चाहिये, केवल भगवान् के बल से ही कैसे काम चलेगा? जीव यही सोचता है - हमें भी तो कुछ करना चाहिये। कुछ ईश्वर करे और कुछ हम करें। सफलता में व्यक्ति अपने कर्तापन को भी देखना चाहता है। यह दृष्टि ठीक है कि व्यक्ति को भी करना चाहिये पर क्या करना चाहिये यह चुनाव अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। गोस्वामीजी लिखते हैं कि सुग्रीव ने विचार किया कि मुझे अपनी ओर से क्या करना चाहिये और फिर -
बहु छल बल सुग्रीव करि,
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